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________________ २४० भरतेश वैभव ही मेरी प्रशंसा क्यों कर रहे हैं ? इतने में भरतेश्वरने कहा कि बेटा ! कोई बात नहीं। बड़े भाईने संतोषके साथ तुम्हारे विषयमें कहा, तुम दोनों ही भूषणस्वरूप हो । इसलिये शांत रहो अब दरबारको बरखास्त कर देते हैं। आप लोग अपने निवास स्थानको जाइये। इस प्रकार कहकर आभरणोंसे भरे हुए दो करण्डोंको उन पूत्रोंको भरतेश्वर देने लगे, तब उन दोनोंने लेनेसे इनकार किया। वे कहने लगे कि हमारे पास अभी आभरण बहुत हैं । अभी जरूरत नहीं। भरतेश्वरने बहुत आग्रह किया। फिर भी लेनेके लिये राजी नहीं हुए। तब वे कहने लगे कि बेटा ! तुम लोग आज बहुत उत्तम कार्य कर चुके हो। इसलिये मैं दिये बिना नहीं रह सकता। यदि तुम लोगोंने आज इसे नहीं लिया तो आ कमी भी तुम लोगोंगे हाय की भेंट नहीं लंगा। भरतेश्वरने विचार किया कि कदाचित् बड़े भाईने ले लिया तो बादमें छोटा भाई लेनेके लिये तैयार हो जायेगा । इसलिये अर्ककीतिके तरफ हाथ बढ़ाने लगे। परन्तु उसने भी नहीं लिया, तब आदिराजसे भरतेश्वरने कहा कि बेटा ! तुम अपने भाईसे लेनेको बोलो ! तब आदिराजने अर्ककीतिसे लेने की प्रार्थना की। अब अक्रकीति अपने भाईके वचनको टाल नहीं सका। अपने पिताजीसे प्रार्थना की कि हम इस उपहारको लेंगे। परन्तु वृषभराजके हाथसे दिलाइयेगा। उसके हाथसे लेनेकी इच्छा है ! तदनुसार दोनों करण्डोंको भरतेश्वरने वृषभराजके सामने रखा। प्रथमत: वृषभराजने दोनों भाइयोंको नमस्कार किया। फिर उसने उन आभरणोंके करण्डोंको हाथ लगाकर सरका दिया। छोटे भाई बड़े भाइयोंको इनाम दे रहा है 1 उसमें भी विनय है। इस नवीन पद्धति को देखकर सब आश्चर्य चकित हुए। वे तद्भव मोक्षगामीके पुत्र हैं, एवं तद्भव मोक्षगामी हैं। इसलिये वे व्यवहारमें किस प्रकार चूक सकते हैं? उन आभरणोंको लेकर उनमेंसे एक-एक हार निकालकर दोनों कुमारोंने वृषभराजको पहना दिया। बाकीको लेकर जाने लगे। इतने में एक विनोदकी घटना और हुई। बड़े भाई आभरणकी पेटीको बगलमें रखकर जाने लगा, तो छोटे भाई आदिराजने कहा। कि भाई ! इस पेटीको आपके महल तक मैं पहुँचाऊँगा, आप क्यों कष्ट ले रहे हैं? आदिराज ! तुम पिताजीके सामने व्यर्थ गड़बड़ मत करो। जो ।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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