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भरतेश वैभव
२३९ कोई सुख नहीं है । उस सुखको हम कहाँतक वर्णन कर सकते हैं ? अभ्यास, अध्यवसाय आदि आलस्यको दूर करनेके लिये प्रधान साधन है, शास्त्राभ्यास ज्ञानका साधन है । राजकुलमें उत्पन्न वीरोंके लिये यह विद्यासान भूषण है । सुखसाधन है ।
भरतेश्वरने पुत्र से कहा कि बेटा ! प्रारम्भमें विद्योपार्जन कुछ कठिन मालूम होता है, परन्तु आगे जाकर वह सरल मालूम होता है । धीर व साहसियोंके लिये वह साध्य है । डरपोकोंके पास वह विद्यादेवी भी नहीं आती। इसलिये उसकी कठिनाइयोंसे एकदम डरना नहीं चाहिये ।
"पिताजी ! हमें बिलकुल भी कष्टका अनुभव नहीं होता है । प्रत्युत हमें उसमें और भी अधिक आनंद ही आनंद आता है । हमें किसी बातकी जल्दी नहीं है । इसलिये धीरे-धीरे उसको साधन कर रहे हैं । इसलिये हमें कोई कठिनता नहीं होती है । उदयकालमें अभ्यास दुपहरको पठन और रात्रिके समयमें पठित पाठका चिंतन करना यह हमारे प्रतिनित्यका साधनक्रम है। हम मृदुमार्ग से व्यवस्थित रूपसे जा रहे हैं । इसलिये हमें उस मार्ग कष्ट क्यों हो सकता है ? पिताजी ! आदिराजकी बुद्धिका मैं कहाँतक वर्णन करूँ ? ग्रन्थपठन व अभ्यासमें वह आदर्श रूप है। जिस प्रकार कोई पहिले अभ्यास कर भूले हुए विषयोंको एकदम स्मरण करता हो, उसी प्रकारकी हालत नवीन ग्रंथोंके अभ्यासमें आदिराजकी है अर्थात् बहुत जल्दी सभी ग्रंथ अभ्यस्त होते हैं । स्वामिन् ! आपने उसका नामकरण करते हुए भगवान् आदिनाथका नाम जो रखा है वह बहुत विचारपूर्वक रखा है। उसमें अन्यथा क्यों हो सकता है ? विचार करनेपर वह सचमुत्रमें आदिराज है | अंत्यराज व मध्यराज नहीं है। इन प्रकार आदिराजको अर्ककीर्तिने प्रशंसा की ।
भरतेश्वरने प्रसन्न होकर कहा कि "बेटा ! सचमुच में तुम्हारे भाई साहसी हैं ? वीर हैं ? बुद्धिमान् हैं ? तुमको उससे संतोष हुआ है ? बोलो तो सही ! "पिताजी ! विशेष क्या कहूँ ? अपने वंशके लिये वह आदिराज भूषणस्वरूप है" अर्ककी तिने कहा ।
कीर्तिमुखसे अपने वर्णनको सुनकर आदिराज कहने लगा कि भाई ! क्या बड़े लोग छोटोंकी इस प्रकार प्रशंसा करते हैं ? क्या राजपुत्रोंके लिये यह योग्य है ? मुझमें इस प्रकारके गुण कहाँ हैं ? आप व्यर्थ