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भरतेश वैभव
आज्ञानुसार वेतन तत्क्षण दिया गया। परंतु उन्होंने ही खजाने में रखनेके लिये आज्ञा दी । इन प्रचण्ड वोरोंको कौन रोक सकता है ?
इसके बाद दोनों कुमारीको बैठने के लिये आज्ञा देकर आसन दिया गया । परन्तु वे बैं? नहीं। उन्होंने भरतेश्वरकी और एक सेवा करनेकी तैयारी की । पारामें ही खड़े होकर एक सेवक सम्राट्को तांबूल दे रहा था । उसके हाथसे तांबूलके तबकको अर्ककीतिने छीन लिया, व स्वतः तांबूल देनेकी सेवामें संलग्न हुआ। इतनेमें आदिराजने भी चामर डोलानेबालेके बामरको छीन हि स्वतः सागर डोलने लगा। उस समय उन दोनों पुत्रोंकी सेवाको देखते हुए दरवारके समस्त सज्जन भावना करने लगे थे कि "लोकमें पुत्रोंकी प्राप्ति हो तो ऐसौकी ही हो। नहीं तो ऐसे भी बहुतसे पुत्र उत्पन्न होते हैं, जिनसे पिताकी सेवा होना तो दर, पिताको ही उसकी सेवा करनी पड़ती है। कभी कभी पितृद्रोहके लिये भी वे तैयार होते हैं"।
तांबुल देनेके बाद और एक सेवा करनेके लिये अर्काति सनद्ध हुआ। पिताकी गोदसे वृषभराजको लेकर स्वयं उसे खिलाने लगा। भरतेश्वरने कहा कि बेटा ! वृषभराजको तुमने क्यों उठाया ? अर्ककीतिने बहुत विनयके साथ कहा कि स्वामिन् ! बहुत देरसे बह आपकी गोदपर बैठा है, आपको कितना कष्ट हुआ होगा? इसलिये कुछ देरके लिये अपने भाईको मैं भी उठाऊँ, इस विचारसे मैंने लिया और कोई बात नहीं। ___ भरतेश्वरने सोचा कि मैंने जिस बच्चेको पहिले उठाया था उसको यह अब उठा रहा है। इसी प्रकार जिस षट्खण्ड भूभारको मैं अब धारण कर रहा हूँ उसे यह भविष्यमें धारण करेगा। यह इसके लिये पूर्ण समर्थ है। इसी प्रकार वहाँ उपस्थित बड़े-बड़े राजा, प्रजा, देव, आदियोंने अपने मनमें विचार किया । तदनंतर भरतेश्वरने "वेटा! मेरी शपथ है । मुझे बिलकूल कण्ट नहीं, लाओ, बच्चेको इधर लाओ, तुम दोनों यहाँ पासमें बैठे रहो" ऐसा कहकर दोनोंको पासमें बैठा लिया । पासमें बैठे हुए दोनों पुत्रोंके साथ भरतेश्वर बहुत आनंदके साथ विनोद कर रहे हैं।
बेटा ! तुमलोग अव गुरुकुलमें विद्याभ्यास कर रहे हो । क्या वह कष्टमय है या सुखमय है ? इस प्रकार भरतेशने अर्ककीतिसे पूछा ।
अर्ककीति कहने लगा कि स्वामिन् ! विद्योपार्जनके समान अन्य