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भरतेश वैभव खास लक्षण यही है कि वे अखण्ड भोगोंके बीच में रहनेपर भी आत्माकी ओर ही उनका चित्त रहता है, भोगकी ओर नहीं । अनेक रागरचनाओंसे गाये जाने वाले उन गायनोंपर सन्तुष्ट होकर उनको अनेक प्रकारसे इनाम भी देते जा रहे हैं, अन्दरसे परमात्मकलाकी भावना भी कर रहे हैं । इस प्रकार भरतेश योग और भोगमें मग्न होकर दरबारमें विराजमान हैं। इतने में चित्तानमति नामक दासीने वर्षभराजको लाकर सम्राइ हाथमें दे दिया । भरनेश्वर नषभराजके साथ अनेक प्रकारसे बिनोद करने लगे। बेटा ! क्या भरतेश्वरके पिता वृषभनाथ ही साक्षात् आये हैं ? नहीं नहीं यह वृषभराज है। भरनेश्वरने जिस समय उस बच्चको हायसे उठाया, उस समय ऐसा मालम हो रहा था कि जैसे कोई बड़ा रहन निर्मित छोटे पुतलेको उठा रहा हो। पिताके मुखको पुत्र, पुत्र के मुख को पिता दखकर दोनों हंस रहे हैं।
भरनेश्वर पुत्रके हायकी रेखाओंके लक्षपाको देखकर उनके शुभ फलको विचार कर रहे हैं। मंगलमय रेखाओंको देखकर प्रसन्न हो रहे हैं 1 पिला जिस प्रकार उस बच्चे के हाथ देख रहे हैं, उसी प्रकार उस बच्चेने भी भरनेश्वरके हाथको देखने के लिये प्रारम्भ किया व हँसने लगा। तब भरतेश्वर कहने लगे कि बेटा ! मैंने तुम्हारे लक्षणको देखा, क्या इसीलिये तुमने मेरे लक्षणको भी देखा? मुझ सरीखे तुम, तुम सरीखे मैं, उसमें अन्तर क्या है ?
इस प्रकार एक बच्चे के साथ जब प्रेम कर रहे थे तब दरबारमें भरतेश्वरके दो पुत्र और आये, आगे अर्ककीर्ति हैं, पीछेसे आदिराज हैं, दोनों विनयी हैं, सद्गुणी हैं। इसलिये दरवारके बाहर छत्र, चामर, लड़ाऊँ आदिको छोड़कर अपने मायके सेवकों को भी बाहर ही खडे रहने के लिये आज्ञा देते हए अन्दर आ रहे हैं। अनेक प्रकारके रमनिमित आभरण, तिलक, गन्धलेपन आदिसे अत्यन्त शोभाको प्राप्त हो रहे हैं। भर व भक्तिके दोनों मूर्तस्वरूप थे । इसलिये पिताके प्रति भय व भक्तिके साथ दरबारमें आ रहे हैं । वेत्रधारीगण राजाको उच्च स्वरसे सूचना दे रहे हैं कि स्वामिन् ! सूर्यसे भी द्विगूण प्रकाशको धारण करनेवाले अर्ककीर्ति कुमार आ रहा है उसीके साथ आदिराज भी आ रहा है। एक वटिकाको एक करोड़ सुवर्णमुद्रा जिनका वेतन है ऐसे सुकुमार आ रहे हैं । सौजन्य, विनय, विवेकमें जिनकी बराबरी करनेवाले कोई नहीं, ऐसे दोनों कुमार आ रहे हैं। राजन् ! देखिये तो सही ! राजन् ! हुण्डावसर्पिणीके आदियुगमें षटखण्डमण्डलेशरूपी पर्वतसे