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भरतेश वैभव
२२७ कभी बालकको देखकर हँसते हैं। कभी महाराज ! कहाँस आपको सवारी पधारी है ? इस प्रकार बहुत विनोदसे पूछ रहे हैं। कैलास पर्चतसे आये हुए यह आदिनाथ नहीं हैं। मेरुके अग्नपर खड़े रहकर मुझे करुणामे देखने के लिये आया हुआ आदिराज है।
भरतेशके हाथमें सवर्णरक्षा बंधी हुई है। उसे देखकर बालक हठ करने लगा वह मुझे मिलनी चाहिये। तब भरतेश्वर कहने लगे कि बेटा ! इस रक्षाकी क्या बात है । थोडा नड़ा हो साझे। तुम्हारे लिंगे आभषण दे रके ढेर बनवाकर दूंगा। ___ भरतेश्वर-गोदपर आदिराज बहुत आनंदके साथ बैठा हुआ है। इतने में अर्ककीर्ति वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत होकर उस दरबारमें आया। __ उसके पीछेसे मंदाकिनी दासी भी आ रही है । अर्ककीतिके दरवारमें प्रवेश करते ही दरबारी लोग उठकर खड़े हुये व उसे नमस्कार करने लगे। सबको बैठने के लिये हाथसे इशारा करते हुये भरतेश्वरकी ओर बह जा रहा था। भरतेश्वरको भी आते हुए पुत्रको देखकर हर्ष हुआ। आदिराजसे कहने लगा कि बेटा ! तुम्हारा बड़ा भाई आ रहा है, खड़े होकर उसका स्वागत तो करो। इतने में वह बालक खड़ा हो गया। जब भरतेश्वरने उसे हाथ जोड़नेके लिये कहा तब हाथ जोड़ने लगा। अर्ककीर्ति उसे देखकर प्रसन्न हआ। स्वयं भरतेश्वरके चरणमें एक रत्नको भेटमें समर्पण कर सिंहासनके पास ही खड़ा हो गया।
भरतेश्वरको उसकी वृत्ति देखकर आश्चर्य हुआ । वे पूछने लगे कि मंदाकिनी ! अर्ककोति कुमारको यह किसने सिखा रखा है ? बोलो तो सही। स्वामिन् किसीने भी सिखाया नहीं है और न जरूरत ही है। स्वयं ही पिताको सेवा करनेके लिये उपस्थित हुआ है। दूध शक्करका सेवन करते हुए माता-पिताओंके ऋणसे बद्ध क्यों होना चाहिये ? उससे मुक्त होनेके लिये बह यहाँपर आया है और कोई बात नहीं। इस प्रकार मंदाकिनीने कहा।
अर्ककीर्ति कुमार उस मिहासनके पासमें अत्यंत गम्भीर होकर खड़ा है। उसे देखकर आदिराजकी भी इच्छा उत्पन्न हुई कि मैं भी बड़े भाईके समान पिताकी सेवा करूं। इसलिये सबसे पहिले अपने पहने हुये वस्त्राभूषणोंको उठाकर फेंक दिये व हठ करने लगा कि अर्ककोतिने जिस प्रकारके बस्त्राभूषणोंको धारण किये हैं वैसे ही मुझे भी चाहिये । भरतेश्वरने उसे बहुत समझाया । परंतु वह मानता नहीं।