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भरतेश वैभव व्यतीत हो रहा है । साहित्यकला, संगीतकलासे प्रतिनित्य अपनी तृप्ति करते थे। किसी भी प्रकारकी चिता उन्हें नहीं थी।
हमारे प्रेमी पाठकोंको भी आश्चर्य होगा कि भरतेश्वरका भाग्य बहुत विचित्र है। वे जहाँ जाते हैं वहीं आनन्द ही आनन्द है। किसी भी समय दुःख उनके पास भी नहीं आता है। इस प्रकार होनेके लिये उन्होंने ऐसा कौन सा कार्य किया होगा? क्या प्रयत्न किया होगा ? इसका एकमात्र उत्सर यह है कि भरतेश्वर रात दिन इस प्रकारकी भावना करते थे कि...
सिद्धात्मन् ! आप लोकैकशरण है ! जो भव्य आपके शरणमें आते हैं, उनको पुण्य संपत्तिको देकर उनकी रक्षा करते हैं। इतना ही नहीं पापमय भयंकर जंगलके भवसे उन्हें मुक्त करते है। इसलिये आप लोकमें श्रेष्ठ हैं। स्वामिन् ! अतएव मुझे भी सद्बुद्धि दीजियेगा।
परमात्मन् ! तुम जहाँ बैठते हो, उठते हो, सोते हो, सब जगह तुम अपनी कुशललीलाको बतलाते हो, इसलिये परमात्मन् ! मेरे हृदयमें बराबर सदा बने रहो जिससे मुझे सर्वत्र आनंद ही आनंद मिले।
इसी चिरंतन भावनाका फल है कि चक्रवर्ती सर्वत्र विजयी होकर उन्हें सुख मिलता है।
इति आदिरामोदय सन्धि
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वरतनुसाध्य संधि
छह महीने बीतनेके बाद सेनाप्रस्थानके लिये आज्ञा दी गई 1 उसी समय विशालसेनाने प्रस्थान किया। पूर्वसमुद्रके अधिपति मागधामर को साथ लेकर भरतेश्वर चतुरंग सेनाके साथ दक्षिण समुद्रकी ओर जा रहे हैं। एक रथमें छोटे भाईका झूला व एक बड़े भाई अर्ककीर्तिकुमारका है। बीच-बीचमें मुक्काम करते हुए सेनाको विश्रांति भी दे रहे हैं। कभी भरतेश्वर पालकीपर चढ़कर जा रहे हैं। कभी हाथी पर
और कभी घोड़ेपर । इस प्रकार जैसी उनकी इच्छा होती है विहार करते हैं। इसी प्रकार गर्मी, बरसात आदि ऋतुमानोंको भी देखकर सेनाजनोंको कष्ट न हो उस दृष्टिसे जहाँ तहाँ मुक्काम करते हुए आगे बढ़ रहे हैं । कई मुक्कामोंके बाद वे दक्षिणसमुद्रके तटपर पहुंचे। वहाँ
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