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भरतेश वैभव
दिव्य देवालपमें राजागाष, राजपुन, प्रजाजन, सेनाके योद्धा आदिने बहत भक्तिके साथ जिनेंद्रकी पूजा की, जिसे देखकर सभी जयजयकार करते थे।
उस दिन जातकर्म संस्कार, फिर बारहवें दिन नामकरण संस्कार किया। भरतेश्वरकी इच्छासे नालाका भगवान आदिनासका दिव्य नाम “आदिराज' रखा गया ।
नामकर्म संस्कारके रोज मागधामरने अनेक संभ्रम, संपत्ति व सेनाके साथमें उपस्थित होकर चक्रवर्तीका दर्शन किया।
चक्रवर्तीने उसके आगमनके संबंधमें हर्ष प्रकट करते हुए कहा कि मागधको आगेके मुक्काममें आनेके लिये कहा था, परंतु वह जल्दी ही लौटकर आया, इससे मालूम होता है कि यह हमारे लिये हमेशा हितैषी बना रहेगा। इसे सुनकर मागधामर हर्षित हुआ। कहने लगा कि स्वामिन् ! आपसे आज्ञा लेकर गया तब समुद्रके तटपर ही मुझे समाचार मिला कि आपको पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई है। मेरा विचार वहींसे लोटनेका हुआ था। फिर भी राज्यमें जाकर वहाँसे इस प्रसंगके लिये योग्य भेंट वगैरह लानेके विचारसे चला गया और सब तैयारीके साथ लोटा ।
चक्रवर्ती कहने लगे कि मागध ! तुम्हारे लिये मैंने भरी सभामें तिरस्कारयुक्त वचन बोले थे । तुम्हारे मनको कष्ट पहुंचा होगा । उसे भूल जाओ। - स्वामिन् ! इसमें क्या बिगड़ा ? आपने मुझे दबाकर सद्बुद्धि दी। आप तो मेरे परमहितैषी स्वामी हैं। इस प्रकार कहते हुए मागधने चक्रवर्तीके चरणोंपर मस्तक रखा ।
भरतेश्वर मागधामरपर संतुष्ट हुए । कहने लगे कि मागधामर ! जाओ! अपने आधीनस्थ राजाओंके साथ तुम आनंदसे रहो। मेरा तो कार्य उसी दिन हो गया, अब तुम स्वतन्त्र होकर रह सकते हो।
स्वामिन् ! धिक्कार हो! उस राज्य व उन आधीनस्थ राजाओंको । उस राज्यमें क्या है ? तुम्हारी सेनामें रहकर पादसेवा करना ही मेरे लिए परमभाग्य है। अब आपके चरणोंको मैं छोड़ नहीं सकता। सचमुच में जो लोग भरतेश्वरको एक दफे देख लेते थे फिर उन्हें छोड़कर जानेको इच्छा नहीं होती थी।
नवजात बालक कुछ बड़े इसके लिये उसी स्थानमें सम्राट्ने छह महीनेका मुक्काम किया। उनका दिन वहॉपर बहुत आनंदके साथ