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________________ art भरतेश भुत्न MEETINY HEx. ९ जो इस प्रकार समझकर आत्माका दर्शन करते हैं वे धन्य हैं। यह आत्मा पुरुषाकार होकर इस शरीर में रहता है फिर भी इस शारीरके रूपमें मिलता नहीं है। यह आत्मा आकाशके बीचमें पुरुषाकारसे बनाये गए चित्रके समान है। यह गरीर एक बाजेके समान है, वाद्यनी जबतक कोई बजानेवाला नहीं बजाता है तबतक वह बज नहीं सकता । इमी प्रकार इम शरीग्में जबतक आत्मा नहीं है तबतक उसका कोई उपयोग नहीं है । यद्यपि आत्मा और शरीर भिन्न-भिन्न हैं । परन्तु बहुत खेदकी बात है कि इस न समझकर आत्मा चलनेमें असमर्थ शरीरको चलाता है । बोलनेमें अममर्थ शरीरसे बुलवाता है और कहीं वह शरीर अगमर्थ हो जाय तो आत्मा दुःखी हो जाता है। जिस समय अग्नि लोहेमें प्रवेश कारती है उस समय लहार उसे हथौड़ेसे ठोंकता है। परन्तु जब बह लोहेसे बाहर निकले तो उसे कौन ठोक सकता है। प्रत्युतः वही सबको जला सकती है; इमी प्रकार जो आत्मा शरीरमें प्रविष्ट है उसे ही बाधा होती है । शरीरको छोड़नेपर आत्माको कौनसी बाधा है ? कोई भी नहीं । जीव वर्तमान देहको मरणके समय छोड़ देवे तो उसे आगे दूसरे शरीरकी पुनः प्राप्ति होती है। इस गरीर को छोड़कर आगे अन्य शरीरकी धारण न करने की अवस्थाको प्राप्त करना ही मुक्ति है । ___ कोई कह सकता है कि यह कथन तो सरल है परन्तु ऐसा होना कठिन है। इस प्राप्त शरीरको छोड़कर आगेके शरीरको न लेनेका उपाय क्या है ? इसका उत्तर यह है कि बीजकी अंकुरोत्पत्तिकी सामर्थ्य जबतक मूलतः नष्ट नहीं की जाती है, तबतक वह अंकुरोत्पत्तिका कार्य जरूर करेगा। मूलसे उसकी शक्तिको नष्ट करने पर फिर उसमें वह कार्य नहीं दिखेगा। इसी प्रकार शरीरकी उत्पनिका कारण जो कर्म है उस कर्मबीजका मूलसे नाश करना चाहिये। इससे आगेका शरीर उत्पन्न नहीं हो सकता है । यदि कर्मबीज को अच्छी तरह जलावं तो शरीरकी उत्पत्ति होना असम्भव है। परन्तु कौनसी अग्निसे ? सम्यग्ज्ञान अथवा विवेकरूपी अग्निसे यह कम जलाया जा सकता है। फिर उस देहकी उत्पत्ति असम्भव है; तब आत्मा मुक्तिस्थानको प्राप्त कर अनंत सुखी बनता है। जिस वृक्षको जड़ अधिक फैली हुई रहती है, उसके नाशका कारण
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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