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भरतेश वैभव उनकी ध्वनि भी दिव्य क्यों न हो? भगवान्के पीछे विद्यमान भामण्डल मेरुपर्वतके पीछे रहनेवाले इन्द्र धनुषकी शोभाको उत्पन्न कर
चामरोंके बीच भगवान ऐसे शोभायमान हो रहे हैं, मानों हिमसे आच्छादित पर्वत ही हो । उनने सिंहासन आदि अष्ट महाप्रतिहार्योके बीच विराजमान, भव्योंके कर्मको संहार करनेवाले भगवान्की अत्यन्त भक्तिपूर्वक स्तुति की।
इस प्रकार जिनेन्द्र'का गुणानुवाद करके उनने सिद्ध परमेष्ठौकी तथा तदनन्तर मुनियों की वन्दना कर इस शरीरमें स्थित आत्मतत्व विचारपर ऐसा मधुरगान किया कि भरत चक्रवर्ती आनंदित हो उठे।
इस शरीर में आत्मा सर्वत्र विद्यमान है इस बातको न जान करके संसारी जीव उसे बाहर ही इंडकरके दुःखका अनुभव कर रहे हैं।
चमकता हआ दर्पण हाथमे होते हए भी पानीमें अपने प्रतिबिम्ब को देखनेवाले व्यक्ति के समान अपने शरीरके भीतर रहनेवाले आत्मको नहीं देखकर ये प्राणी सर्वत्र धूम रहे हैं यह कितने दुःखकी बात है। ____ अपने घरमें विद्यमान भण्डारको बिना देखे बाहर श्रीमन्तोंके पास जाकर भीख मांगनेवाला मुर्ख नहीं तो कौन है ? शरीरस्थित आत्माको भूलकर बाह्यपदार्थोको देखनेवाला किस प्रकार सुखी हो सकता है ?
ईसमें विद्यमान मधुररसको न जानकर बाहरके सूखे पत्तोंको स्वाने वाले प्रशुओंके समान मूर्खजन आत्मीयसुखसे अनभिज्ञ होनेके कारण शरीर सुख में ही मुग्ध होते हैं।
हो ! हरे-हरे पत्तोंको भी छोड़कर हाथी ईखके मिष्ट रसका स्वाद लेता है, इसी प्रकार कोई-कोई भेदविज्ञानी शरीरसुखको तुच्छ समझकर आत्मीय सुखका ही अनुभव करते हैं !
अपने हाथमें विद्यमान पदार्थको न देखकर सारे जंगल में उसे खोजनेवालेके समान शरीरमें स्थित आत्माको न देखकर सारे लोकमें ढूंडनेपर क्या आत्माकी उपलब्धि होगी ?
म्यानमें रहनेवाली तलवारके समान, बादलसे ढंके हुए सूर्यके समान बाहरसे मलिन शरीरमें छिपा हुआ आत्मा भीतर प्रकाशमान हो रहा है।
ज्ञान ही आत्माका शरीर है, ज्ञान ही आत्माका रूप है वह आत्मा निर्मल ज्ञानदर्शन स्वरूप है। यह ज्ञानदर्शन ही आत्माका चिह्न है।