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________________ २१४ भरतेश वैभव चीरनेके लिए आज्ञा देता तो वह शत्रुका प्राण लिए विना क्या लौट सकता था ? कभी नहीं । वह मंत्रास्त्र है । और भी विचार करो । बाणके साथ जो व्यक्ति पत्रको भेज रहा है क्या वह अग्निकी ज्वालाओं को नहीं भेज सकता है ? उसका परिणाम क्या हो सकता था, जरा विचार तो करो । खंभेपर लगे हुए बाणको दिखाकर उपर्युक्त प्रकार जब समझाया तब मागधामरको विश्वास हुआ कि सचमुचमें भरत वीर है। जब उसने यह सुना कि भरत विजयार्धं पर्वतके वञ्चकपाटको मिट्टी के घड़के समान फोड़ेगा उससे और भी घबराया । मुँह खोलकर हक्का बक्का होकर सुनने लगा । मंत्रियोंने कहा कि राजन ! सामने की शक्ति और देखकर एवं विचारकर युद्ध करना यह बुद्धिमत्ता है। यदि अभिमानवश होकर हम आगे बढ़ें, फिर हार जायें तो लोकमं परिहास होता है । युद्ध करना वीरोंका कर्त्तव्य है, परन्तु उसका विचार न कर अपने से अधिक के साथ यदि युद्ध करें तो श्रेयस्कर कभी नहीं हो अपनी शक्तिको सकता ! अपने लिये जो समान है उसके साथ युद्ध करना ठीक है । अपनेसे अधिकके साथ युद्ध करना तो स्वयंका सामना स्वयं करना है । यह वचनतो मागधामरके हृदयमें अच्छी तरह जम गया। वह मन मनमें ही भरतेशकी वीरतापर अभिमान कर रहा था । राजन् ! शायद तुम समझोगे कि हम लोगोंने अपने स्वामीकी इच्छा के विरुद्ध दूसरों की प्रशंसा की । परन्तु वैसा विचार नहीं करना चाहिए। दर्पण के समान परिस्थितियों को ज्योंका त्यों वर्णन किया है । यह तुम्हारे अच्छे के लिए है। अपने स्वामीको निन्दा कर दूसरोंकी प्रशंसा करना यह सचमुच में नीचवृत्ति है। हम लोगोंने अन्तमें जीतनेके उपायको कहा है। आपके कार्यको बिगाड़ने का उपाय हम लोग नहीं कह सकते। आज जरा आपको हमारे वचन कठिन मालूम होते होंगे । परन्तु इसका फल अच्छा होगा। हम लोगोंने आपके हितके लिये ही उचित निवेदन किया है। यदि आपके मनमें आवे तो स्वीकार करें नहीं तो छोड़ देवें । वृद्धोंके हितपूर्ण वचनों को सुनकर मागधामरको पूर्ण निश्चय हुआ कि भरतेश सचमुच में असाधारण वीर है । उसे में जीत नहीं
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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