SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भरतेश वैभव १९९ पाठकों को आश्चर्य होता होगा कि आदि सम्राट् भरतको इस प्रकारका वैभव क्यों कर प्राप्त हुआ ! उन्होंने पूर्व में ऐसे कौनसे कर्तव्यका पालन किया है, जिससे उनको इस भवमें इस प्रकारके वैभव प्राप्त हुए । संसारमें इच्छित सुखकी प्राप्ति सहज नहीं है । उसके लिये पूर्वभवोपार्जित बड़े भारी सुकृतको आवश्यकता है। भरतेश्वरने ऐसा कौनसा पुण्य सम्पादन किया जिससे उन्हें यह सब सहज साध्य हो रहे हैं। इसका एक मात्र उत्तर यह है कि उन्होंने अनेक भवोंसे इस सुकृतका संचय किया है। उन्होंने अनेक भवों में इस प्रकारकी भावना की थी कि हे परमात्मन् ! तुम सुखनिधि हो । लोकमें जो पदार्थ श्रेष्ठ कहलाता है उससे भी तुम श्रेष्ठ हो ! जो अत्यधिक निर्मल है उससे तुम अधिक निर्मल हो ! जो मधुर है उससे अनंतगुण अधिक तुम मधुर हो ! इसलिये मधुर अमृतको सिंचन करते हुए मेरे हृदय में चिरकालतक वास करो । परमात्मन् ! भव्य कमलके लिये तुम सूर्यके समान हो ! शांतही ! जो लोक में सत्यप्रकृति के हैं उनको अत्यंतभोग व अधिक सौभाग्यको प्राप्त कराने में तुम प्रधान सहायक हो । अतएव स्तुत्य हो, तुम मेरे हृदयमें बने रहो । उसी भावनाका यह मधुर फल है । इति पत्तनप्रयाण संधि. -:: दशमी प्रस्थान संधि भरतेश्वर गजारूढ़ होकर बहुत वैभवके साथ आगे बढ़ रहे हैं । अयोध्यानगरके बाहर ही कुछ दूरमें सामनेसे एक विजय वृक्षपर चक्ररत्नका प्रकाश दिखने लगा । सिलग्न में जब महलसे सिंहासनाधीशने प्रस्थान किया तब सेनापतिको आज्ञा दी कि चक्ररत्नको आगे चलाओ। उनके संकेतसे ही उसका शृङ्गार किया गया था। अनेक प्रकारकी झालरी, वस्त्र व भूषणोंसे उस विजयवृक्षकी भी शोभा की गई थी। विजयवृक्षको कन्नड़में "बन्नी" कहते है । " बन्नी" शब्दका दूसरा अर्थ आओ ऐसा होता है। जिस समय उस वृक्षके सुन्दर पत्ते हवासे
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy