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भरतेश वैभव
__ जिस प्रकार भ्रमर कमलके समीप गुंजन करता है, उसी प्रकार ये गायक भी महाराज भरतके मुखकमलके समीप मधुरगान कर रहे थे।
जिस प्रकार चन्द्र दर्शन से समुद्र उमड़ता है उसी प्रकार भरतचंद्र को देखकर इन गवैयोंका हृदय भी उमड़ता था।
जिन भरतके स्मरण मात्रसे अज्ञ लोगोंको भी भरतशास्त्र 'संगीतशास्त्र आवे तब भला इन गायकोंको उस संगीतशास्त्रमें प्रवीणता मिले तो इसमे आश्चर्य ही क्या है ?
प्रातःकालके योग्य रागमें श्रीवीतरागप्रभुके गुणोंका वर्णन करते हुए गायकोंने ऐसा मधुरगान किया कि सुननेवालोंकी आत्मा पवित्र हो जाये । उनने भूपाली तथा धनश्री रागमें उस भूपालीके राजसमूहके अधिपती चक्रवर्तीके सामने श्री आदिनाथ स्वामीकी स्तुति करते हुए इस प्रकार गाया कि सबका पाप नष्ट हो जाय।।
उनने अमल मनसे पवित्र निष्कल, अविनाशी भगवान् आदिनाथ प्रभुकी स्तुति मल्हाररागमें इस प्रकार की कि सुननेवालोंका कर्ममल दूर हो जाय ।
देशाक्षिरागमें जिनेंद्रकी स्तुति करके उन लोगोंने देशाधिपति भरतको प्रसन्न किया। मंगलकौशिक नामक रागमें मंगलाष्टक गाकर बतलाया, इसी प्रकार गुण्डाक्रि, भैरवी इत्यादि रागोंमें जिनेश्वरकी स्तुति की।
वीणाकी ध्वनि कौनसी है और गानेवालोंकी ध्वनि कौनसी है, यह भेद प्रकट न होते देखकर वे जिन और सिद्धोंके स्वरूपकी महिमा प्रकट कर के गाने लगे।
किन्नरीके साथ जिस समय वे गारहे थे उस समय श्रोता लोग कहते थे कि अब किन्नर किं पुरुषोंकी क्या आवश्यकता है?
वे रत्नत्रयकी महिमाको वीणा द्वारा ऐसा गारहे थे कि श्रोता पुनः गायन के लिए प्रेरणा किए बिना नहीं रहते थे ।
उनकी कंठध्वनि, गायनजागृति, आलापक्रम ये मव कुछ अच्छे थे। इसमें जिनेंद्र भगवान्का नाम और मिल गया, भला फिर उस माधुर्यका कहना ही क्या ?
लोग कह रहे थे कि भ्रमरको मुंजनमें क्या है ? कोयलका स्वर रहने दो, तुंबर नारदोंकी अब क्या आवश्यकता है ?