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________________ बैठने के लिये प्रार्थना की और उस झुलेकी डोरीको हाथमें लेकर मोका देने लगे । माताने बाल्यावस्थामें उसे जो झुलाया है मम्मवतः यह उसका बदला है। फिर भरतेशने माताके ऊपर गुलाबजल छिड़का । मानाने उन्हें बाल्यावस्थामें जो दूध पिलाया है उसका मानो अब ऋण चुवा रहे हैं । इस प्रकार अपनी रानियोंके माथ माताकी अनेक प्रकारमें सेवा करते हुए कहने लगे माता ! आपको बहुत कष्ट हुआ । आपका शरीर थक गया है । आप इस बुढ़ापेमें उपनाम क्यों करती हैं ? ___ माता पुत्रकी बात सुनकर कुछ भी नहीं बोली और मनमें विचार करने लगी कि आज भरत मेरे कारणसे विश्रांति नहीं ले रहा है, इसलिये यहाँसे अब जाना चाहिये । प्रकटरूपसे कहने लगी कि बेटा ! मुझे अपनी महलको गये विना नींद नहीं आती है, इसलिये मैं वहाँ जाती हूँ। तुम यहाँ विश्रांति लेलो। यह कहकर उठी, भरतेशने हाथका सहारा दिया। उसी समय माताकी दामियों को अनेक वस्त्र आभूषण भंट में दिये। नब माताने विनोदमें कहा तुमने मुझे कुछ भी नहीं दिया। भरतेशने कहा कि माता ! आपको देनेवाला मैं कौन है ! यह सब सम्पत्ति आपकी ही तो है। __तदनन्दर माता अपनी महल में आकर पारणा कर गई, इस हर्षोपलक्ष्य में सम्राट्ने संकड़ों पेटियांको भरकर वस्त्र आभूषण आदि भेजे। माताके माथ कुछ दूरतक पहुँचानेवे लिये भरतेश गये। उतने में दरवाजेपर पालकी तैयार थी। माता उमपर चढ़ गई। पुत्रने भकिसे नमस्कार किया। माता प्रेमस आगीर्वाद देकर अपने महलकी ओर गई । इधर भरतेश अपनी महलमें मुखपूर्वक भोगयोगमें मग्न हैं। ___ कल दिग्विजयके लिये प्रस्थान करनेका मम्राट् निश्चय करेंगे। परन्तु आज उनके मन में उनकी कल्पना भी नहीं है, विचार भी नहीं है । वे निराकुलतासे सुखमें मग्न हैं, क्योंकि महापुरुषोंकी वृत्ति अलोकिक है। - वह भरतेश मारभव्य हैं, उनकी रानियां सारभव्य हैं, उसी प्रकार उनकी माता भी निकट भव्य हैं, वे सब भव्य उपवामकी पारणा कर मुम्बमवादमें थे। * भरतेग मंपत्समृद्ध कोशलदेयके अयोध्यानगरमें मुरभोगमें मग्न ये । इस पारणासंधिके साथ यह भोगविजय नामक प्रथम कल्याण भी पूर्ण हो रहा है। --इति पारणासंषिमोविजयनामक प्रथमकल्याणं समाप्तम्
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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