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दिग्विजय
नवरात्रि संधि करोड़ों सूर्य और चंद्रके किरणोंके समान प्रकाशमान उज्ज्वल ज्ञानको धारण करनेवाले देवेंद्र चक्रवर्ती आदि से पूज्य भगवान् हमारी रक्षा करें।
सज्जनोंके अधिपति सुज्ञान सूर्य, तीन लोकको आश्चर्यदायक एवं अष्टकर्मरूपी अष्ट दिशाओंको जीतकर ( दिग्विजय ) अखण्ड साम्राज्यको प्राप्त करनेवाले भगवान् सिद्ध परमात्मा हमें मुबुद्धि प्रदान करें ।
कृतयुगके आदिम आदि तीर्थकरके आदिपुत्र आदि ( प्रथम ) चक्र. वर्ती भरत बहत आनंदके साथ राज्यका पालन कर रहे हैं। उनके राज्य में किसी भी प्रजाको दुःख नहीं, चिंता नहीं, प्रजा अत्यन्त सुखी है। रात्रिदिन चक्रवर्ती भरतकी शुभ कामना करती है कि हमारे दयाल राजा भरत चिरकालतक राज्य करें । उनको पूर्ण सुख मिले।
भरलेशके मनमें भी कोई प्रमाद नहीं, बड़े भारी राज्यभारको अपने सिरपर धारण किया है, इस बातकी जरा भी उन्हें चिंता नहीं । किसी बातकी अभिलाषा नहीं। प्रजाहितमें आलस्य नहीं । सुत्राम ( देवेन्द्र ) जिस प्रकार क्षेमके साथ स्वर्गका पालन करते हैं. भरतेश उसी प्रकार प्रेम ब क्षेमके माय इस पृथ्वीको पालन कर रहे हैं । इस प्रकार बहत आनन्द व उल्लासके साथ भरत राज्यका पालन करते हुए आनन्दसे काल व्यतीत कर रहे हैं।
एक दिनकी बात है कि भरतेश आनन्दसे अपने भवनमें विराजे हप हैं। इतनेम अकस्मात् बुद्धिसागर मंत्री उनके पास आये। उन्होंने निम्नलिखित प्रार्थना भरतेशसे की जिमसे भरतेशका आनन्द द्विगुणित हुआ।
स्वामिन् ! अब वर्षाकालकी ममाप्ति हो गई है, अब मेनाप्रयाण के लिए योग्य समय है। इसलिए आलस्यके. परिहारके लिए दिग्विजय का विचार करना अच्छा होगा।
हे अरितिमिरसूर्य ! शस्त्रालयमें बालसूर्यके समान चक्ररत्नका उदय हुआ है । अब आप प्रस्थानका विचार करें।
राजन् ! आप दुष्टोंको मर्दन करने में समर्थ हैं। शिष्ट ब्राह्मण, तपस्वी व सदाचारपोषक धर्मकी रक्षा भी आपके द्वारा ही होती है ।