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________________ भरतेश वैभव १७५ बहुओंने भी सासको दूरसे ही देख लिया। सासको देखनेपर उनको भोजन करनेके समान ही हर्ष हुआ । सास उनको देखकर हँस रही थीं, वे भी सासके मुखको देखकर आनंदसे हँसती हुई पासमें आ रही हैं । ___ सासके निकट आकर सबसे पहिले सासके समक्ष जिनपूजा व अभिषेकके प्रसादरूप गंधोदक व पुष्षको रखा व प्रार्थना करने लगी मातुश्री ! हमने जो अभिषेक व पूजन देखा था, उसपर आप भी प्रसन्नता व्यक्त करें | गंधोदक व पुष्पको ग्रहण करती हुई माता यशस्वतीने "इच्छामि शब्दका उच्चारण किया। बादमें मर्व सतियोंने अपनी पूज्य सासके चरणोंमें मस्तक रखा ! तब माताने उनको आशीर्वाद दिया। झाप लोग अखण्ड सौभाग्यवती रहें तथा सुखसे चिरकाल जीती रहें। उन मतियोंने पूनः एक बार नमस्कार कर कहा, माता ! हमारी कुछ बहिनें पतिकी आज्ञासे अन्य कार्य में चली गई हैं। वे यहां नहीं आ सकीं, इसलिये उनकी ओरसे यह नमस्कार है। इसे भी स्वीकार कीजियेगा। तदनंतर वे सतियां सासको घेरकर बैठ गई और धर्मचर्चा करने लगीं। माता यशस्वती देवीने विचार किया कि बहुओंका परिणाम किस प्रकार है यह देखना चाहिये, इसलिये वह जरा हँसकर पूछने लगी कि बेटी ! तुम लोगोंको कुछ काम नहीं दिखता है, तुम्हारे पतिको भी विवेक नहीं है। इस नवीन तारुण्यमें उपवास आदि कर शरीरको ध्यर्थ क्यों कष्ट दे रहा है ? यदि भरतको विवेक होता तो वह कभी भी तुम लोगोंको उपवास व्रत ग्रहण नहीं कराता। उसके विवेकका नमूना तो देखो। राज्यपालन करते हुए मुनियोंके समान आचरण करता है, यह अविवेक नहीं तो क्या है? कदाचित् उसे भोगमें इच्छा न हो, तो न सही; परन्तु हमारी प्रिय बहुओंको भूखी रखकर कष्ट क्यों देता है ? समझमें नहीं आता। जिन ! जिन ! परम कष्ट है। __इसे सुनकर वे सतियाँ कहने लगी कि माता ! हमें किस बातका कष्ट है ? एक मासमें हम एक उपवास करती हैं। इससे ज्यादा हम क्या करती है। तरुणकालमें शक्तिके रहते हुए व्रत करना क्या उचित नहीं ? माता ! हमारे प्राणनाथको अवितेकी आप कह सकती हैं; क्योंकि वे आपके पुत्र हैं । स्वर्गके देव भी आपके पुत्रकी बड़े गौरवके साथ प्रशंसा करते हैं। लोकमें सर्वत्र उनकी कीर्ति माई जा रही है,
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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