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भरतेश वैभव
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रत्न, तोरण आदि मंगलद्रव्य भी यत्र तत्र रखे हुए हैं। रत्नदीपककी पंक्ति भी अत्यन्त सुन्दर प्रतीत हो रही थी। भरतचक्रवर्तीकी योगशाला उस समय हर तरहसे रत्नमय ही हो गई थी। पाठक भले न होंगे कि यह सब अतिशय व्यन्तरदेव कर गये हैं।
सुर्यलोकसदृश उस रलमण्डपमें प्रवेश कर उन रानियोंने योगिराज भरतेश्वरको तीन प्रदक्षिणा दी तथा वहाँ बैठ गई।
अब उन लोगोंने विचार किया कि कुछ धर्मचर्चा करनी चाहिये । यद्यपि भरतेश ध्यान में बैठे हैं, तो भी इनकी बातचीतसे उनको कोई विघ्न नहीं हो सकता है; कारण जिसने प्रारम्भके ध्यानका अभ्यास किया है, इधर-उधरसे हल्ला गुल्ला होनेपर उसके चित्त में क्षोभ हो सकता है ये तो सुरपन्नधान है हलिये इनके तिमें बाह्य विषयोंसे क्षोभ उत्पन्न नही हो सकता है । अतएव उन लोगोंने विचार किया कि अपने लोग आध्यात्मिक चर्चा करें।
जिस शास्त्रमें परमात्मरत्नका वर्णन हो उसे स्त्रियोंने रत्नोंके प्रकाशसे पढ़ना प्रारम्भ किया। वह भोजनकथा नहीं है, वह जार व चोर कथा भी नहीं है । संसारकी विषय-वासनाओंकी ओर खींचनेकी कथा भी नहीं है । वह तो आत्मसाधनकी कथा है।
भरतचक्रवतीन पहिले भगवान् आदिप्रभुके समवशारणमें जाकर आत्मतस्वके विवेचनको जानकर उसे सर्व साधारणको समझने योग्य भाषामें आत्मप्रवाद नामक ग्रन्थकी रचना की थी। उसीका स्वाध्याय ये स्त्रियां कर रही हैं । कलियुगमें कुंदकुंदाचार्य परमयोगीने जिस प्रकार प्राभृतशास्त्रका निर्माण किया, उसी प्रकार सत् युगमें भरतयोगीने उस शास्त्रका निर्माण किया था।
कलियुगमें जिस प्रकार अमृतचन्द्रसूरिने समयसार नाटकको रचना कर आत्मकलाका प्रदर्शन किया, उसी प्रकार कृतयुगमें चक्रवर्ती भरतेशने उक्त ग्रन्थमें परमात्मकलाका अच्छीतरह दिग्दर्शन कराया था ।
योगीन्द्रस्वामीने प्रभाकर भट्टको जिस प्रकार बहुत मृदुशब्दोंमें परमात्मकथाको सुनाया है, उसी प्रकार भरतयोगीने अज्ञानियोंको भी परमात्मतत्त्वमें रुचि उत्पन्न हो जाय इस विचारसे उक्त ग्रन्थ में सुन्दर व मृदुशब्दोंसे विषयविवेचन किया था।
पचनन्दि योगीके द्वारा निर्मित स्वरूपसम्बोधन, पूज्यपाद स्वामी विरचित समाधिशसकके समान ही उक्त अन्यमें तत्त्वविवेचन किया