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________________ भरतेश वैभव १६५ शरीरको लोप करनेके लिये संजीविनीका दान करते हैं। आपकी जय हो। दयानिधि ! बापका लांछन वृषभ है, इसलिए आप वृषभचिह्नसे युक्त हैं । वृषध्वज आप हैं । वृषभमुख नामक यक्षके आप अधिपति हैं। आप वृषभ तीर्थकर हैं । वृषभ जिनेश्वर हैं । वृषभ नायक हैं । वृषभके अधिपति हैं। इत्यादि प्रवरान्त भकिक मानिस की स्तुति करती हुई वे रानियाँ जिनमन्दिरमें शुभोपयोगसे अपने ममय को व्यतीत कर रही थीं। इतने में उस स्वाध्यायशालामें एक अद्भुत घटना हुई। जिस समय भरतकी रानियाँ जिन मंदिरमें संध्यावंदनके लिये चली गई, उस समय भरतेश एकाग्रताके साथ ध्यानमें मग्न हो गये । यह विषय हम पहले विवेचन कर चुके हैं। उस समय भरतेशके आतिशय ध्यानकी महिमाको देखने के लिये वहाँपर वनदेवी, नगरदेवी, जलदेवी आदि शामनदेवियाँ उपस्थित हुई व मनुवंशतिलफ सम्राट् भरतके ध्यानको देखकर वे चकित हो गई। आत्मारामको साधन करनेवाले राजयोगीके अचल ध्यानको देखकर उन व्यंतर देवताओंके हर्षका पारावार नहीं रहा । अंगुष्ठसे लेकर मस्तकतक थे बारीकीसे सम्राट्को देखती हैं, परंतु वे पत्थर जैसे ध्रुव हैं । कभी वे देवियाँ उनको हाथ जोड़ती हैं, कभी हर्ष से सिर झुकाती हैं, कभी पूजा करती हैं, कभी चामर लेकर हार रही है, तो कोई पुष्पवृष्टि कर रही है और कोई भक्तिसे आरती उतार रही है। वे देवियाँ धीरे धीरे भरतेशकी स्तुति करने लगी। साथमें झांक झांककर रानियोंके मार्गको भी देख रही थीं। कुछ देवियाँ आश्चर्यचकित होकर दूरस खड़ी खड़ी भरतेशको देख रही हैं। बाहरसे यह सब उत्सव हो रहा है। इन सबको भरतेश जानते हैं या नहीं? जिस समय वे ध्यान में एकाग्रतासे लीन हैं उन समय तो उनको इन बाह्यक्रियाओंका अनुभव नहीं होता है, परंतु यदि बीचमें चंचलता उत्पन्न हो जाय तो ध्यान भी विचलित हो जाता है । विचलित अवस्थामें उनको बाहरने देवताओंका उत्सव भी दिखता था, परंतु इससे सम्राट को कोई हर्ष नहीं होता था। वे अत्यंत उदासीन भावमें उनको देखते थे, कारण कि भरतेश आत्मतत्वके प्रभावको जानते थे। जो लोग अविवेकको छोड़कर आत्मस्वरूपका दर्शन करते हैं, उनके चरणमें तीन लोकतक शिर झुकाता है, तो व्यंतर देव आकर सेवा करें
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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