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________________ मरतेश वैभव ही पुष्पके रूपमें मानो परिणत हुआ हो इस प्रकार तारायें आकाशमें चमकने लगी। समवशरण में दिव्यध्वनिके खिरनेका यही समय है, ऐसा समझकर उन स्त्रियोंने भगवान् ऋषभदेवके चरणको स्तुति करना प्रारम्भ किया। उस समय उन स्त्रियोंमें न आलस्य था, न प्रमाद और न इश्वरउधरकी कोई बातचीत थी। उन्होंने सन्तोष, शांति व भक्तिके साथ श्री जिनेन्द्र भगवन्तकी स्तुति की। वंदनाष्टक स्वामिन् ! आप जन्म जरा मृत्युको दूर कर चुके हैं ! तपोधनरूपी कमलके लिए आप सूर्यके समान है। कामदेवको आप जीत चुके हैं। कामदेव बाइबलीके आप पिता हैं । ज्ञानस्वरूप हैं । प्रथम तीर्थकर हैं । __ भगवान् ! दिव्यध्यानरूपी लक्ष्मीके आप पति हैं । आपके पादकमलोंकी दश दिक्पालक देव उपासना करते हैं । आप ही आदि ब्रह्मा हैं । केवलज्ञान व केवल दर्शन ही आपका स्वरूप है । प्रिलोकदीप ! आपका ध्वज सत्यस्वरूप है। सदा आनन्दमें आप मग्न रहते हैं। सर्व प्रकारके बाह्य अभ्यन्तर परिग्नहोंसे आप रहित हैं और सबोधसे सहित है । आप किसीके अवलंबनमें नहीं । त्रिभुवनके प्राणियोंके द्वारा आप स्तुत्य है। पक्विात्मन् ! आप अपनी अत्यन्त धवलकीर्तिसे तीन लोकको व्याप्त कर चुके है, कोटिचन्द्र सूर्य के रामान आपका तेज है। आप अत्यन्त निष्पाप हैं । आपकी जय हो ! स्वामिन् ! आपके दरबारमें देवगण उपस्थित होकर आपकी रातदिन स्तुति करते हैं एवं भक्तिवश सुरपटह, अशोकवृक्ष, भामण्डल आदि अतिशयोंको उत्पन्न करते हैं ! इस प्रकार आप अत्यन्त वैभवसे युक्त हैं। भगवन् : आपके वचन उत्तम तरंगोंसे युक्त गंगानदीके जलसे भी अधिक शीतल हैं। उसके अंगप्रविष्ट, अंगबाह्य आदि भेद होते हैं। वहीं जैनशास्त्र है। त्रिलोकीनाथ ! आप कर्मोंके लेपसे रहित हैं । आपकी सेवामें देवेंद्र भी हाथ जोड़कर मदा खड़ा रहता है, आपकी वन्दना व भक्ति करता है, स्वामिन् ! अपने कल्याण करनेवालेकी स्तुति कौन न करेगा ? आप
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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