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________________ भरतेश वैभव १६३ बाहरसे देखें तो आभरण हैं, वस्त्र है परन्तु अन्दरसे ध्यानके सिवा और कुछ भी नहीं । ऐसा मालम होता है कि वास्तविक सिद्धपरमेष्ठिको वस्त्र व आभरगसे सजाकर बैठा दिया हो । कभी-कभी आभरणों को निकालकर केवल प्रोती पहनकर वे ध्यान करने के लिए बैठते थे और कभी आभूषणोंको वैसा ही रखकर ध्यान करते थे । परन्तु वाहरसे ही सब कुछ रहता था । अन्दरमे उनका कुछ भी प्रभाव नहीं था। भरनेश्वरका गरीर सग्रन्थ है, परन्तु आत्मा उस समय निर्ग्रन्थ है। इस विचित्र दशामें उन्हें अलौकिक सुखका अनुभव हो रहा है । अत्र भरतेश के नेत्रोसे आनन्दाथ बह रहा है। सम्भवतः वह आन्मानन्द उमड़ कर बाहर आ रहा है। सारे शरीरमें रोमांच हो गया है, परन्तु वे अपने ध्यानमें मग्न हैं। परमात्मसुखको भोगकर भरवश कुछ पुष्ट हो गये हैं, इसलिये गलेके मोतीका हार जरा अब तंगमा हो गया है। भेदमतिमें उन्होंने पहिले ध्यानका अभ्यास किया था तदनन्तर वे अभेद भक्ति में आरूद हो गये। उस समय वे पहिलेके सर्व सूखको भूलकर अपने स्वरूप में लीन हो गये। यदि कोई यूवती आकर भरतेशको आलिंगन दे तो भी उन को मालूम नहीं हो सकता है । अर्थात् वे इतनी एकाग्रतासे बाह्य सब विषयोंको भूलकर अपनी आत्मामें मग्न हो गये हैं। जिम प्रकार मूसलाधार पानी बरसते समय लोग स्तब्ध होकर अपने मकान में बैठे रहते हैं, उसी प्रकार बाहरके सब विषयों को भूलकर भरतेश अपने आत्मराज्यमें लीन हो गये हैं। ___ क्या वे स्वर्गलोकमें हैं ? ज्योतिर्लोक में हैं ? बहिर्लोकमें हैं ? जरलोक हैं या नागलोक में हैं ? नहीं ! नहीं ! वे अंतलोकमें विद्यमान हैं। भेद विज्ञानरूपी छेनीद्वारा शरीरको भेदकर वे वहांपर परमात्माकी बापना कर उसकी उपासना कर रहे हैं। इस प्रकार भरतेश अत्यन्त एकाग्रताके साथ ध्यानमें मग्न हो गये हैं। उबर चतुर्मख मन्दिरमें सायवन्दनके लिये गई हुई भरतेश रानियाँ उत्तम अभिप्रायके साथ भगवान् आदिप्रभुकी स्तुति प्रारम्भ करेंगी इसकी सूचना देनेके लिए ही मानो सूर्यदेव अस्ताचलकी ओर चला गया। उस समय सायंकालकी लालिमा दिखने लगी मानो वह चन्द्रमुखी स्त्रियों की जिन मक्तिका ही बाह्य चिह्न है। इनके लिये आकाश
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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