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________________ १६२ भरतेश वैभव क्यों? कहीं वे चन्द्र व सूकि समूहमें ही जाकर बैठे तो नहीं हैं, या जिनेन्द्रकी समवसरणादिक सम्पत्ति ही वहाँ एकत्रित नहीं हुई अथवा अनन्त सिद्धोंके बीच में जाकर तो नहीं बैठे ? इस प्रकार राजयोगींद्रको उस समय अनुभव हो रहा था । __उस समय पंचेन्द्रियका सम्बन्ध नहीं है । यही क्या ? देवेन्द्रके सुखको भी सामने रखे तो वह भी फीका पड़ता है। इस प्रकार भरतेश प्रमादरहित होकर अतीन्द्रिय सुखका अनुभव करने लगे । जब निर्विकल्पक विचारसे स्थिरता आ जाती थी तब सर्वागमें शांति का अनुभव होता था। इतना ही नहीं स्व और परका भी विकल्प वहाँपर नहीं रहता था । आनन्दसागरको अब भरतेश एक छोटे से पात्रमें भरकर पीने लगे। जैसे-जैसे वे पीते जाते थे वैसे-वैसे वह समुद्र उमड़ता ही जाता था। उस समुद्र में तरंग नहीं है, फेन नहीं, पानी नहीं वह लोकके समुद्रके समान नहीं है। मगर, मत्स्य, सर्प आदि दुष्ट जानवर उस समुद्र में नहीं हैं। भूमिका स्पर्श वह नहीं करता है। ध्यानीके सिवाय और किसीको भी देखने में वह समुद्र नहीं आ सकता है । भरतेश्वर उस समुद्र में बराबर डुबकी लगा रहे हैं। वहाँ पहिले भोगे हुए पंचेन्द्रिय-विषयसम्बन्धी भोग अत्यल्प प्रमाणमें दिखते हैं। केवल श्री आदिप्रभु ही उस आनन्दसागरको जानते हैं । वहाँपर यह धीर जलक्रीड़ा कर रहे हैं । वह कितना उच्च सुख होगा। ___उस आत्मसुखको भोग सकते हैं, परन्तु दूसरोंको उसकी व्याख्या कर कहना अशक्य है। आकाशमें चारणमुनियोंका विहार हो सकता है, परन्तु जिस मार्गसे वे गये उस मार्ग में भला उनके पदोंके चिह्न मिल सकते हैं ? कभी नहीं। उस समय सम्राट् अपनेमें अपने लिये, अपनेको ठहराकर और अपने द्वारा ही अपनेको देखकर अपनेमें उमड़े हुए सुखको बराबर भोग रहे थे। बाहरकी क्रीडासामग्री के बिना ही क्रीड़ा कर रहे हैं। रस्मी आदि वगैरहके बिना ही झला झूल रहे हैं । स्त्रीके विना ही रतिमुखका अनुभव कर रहे हैं। मुखकी अपेक्षा न करते हुए चिद्गुणान्नका आहार कर रहे हैं, शरीरके विना ही रूपका दर्शनकर रहे हैं। ऐश्वर्यके विना ही आज वे अत्याधिक श्रीमान है । क्या ही विचित्रता है। ___ बाहरसे जो उन्हें देखते हैं उनको वे राजाके समान दिखते हैं। किन्तु भीतर अन्दर बे राजयोगी हैं । साथमें निजानन्दरसको भी बराबर भोग रहे हैं। इसलिये भोगी भी हैं।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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