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________________ भरतेश वैभव इस रहस्यको उसके सिवाय अन्य कोई जान नहीं सकते । जिस प्रकार हाथको पीछे मोड़कर मजबूत बाँधे हुए चोरका जैसे जैसे बंधन ढीला होता जाय वैसे-वैसे सुख बढ़ता है, उसी प्रकार कर्मका बंधन जैसे-जैसे शिथिल होते जाय वैसे ही सुखकी वृद्धि होने लगी । क्षण-क्षण में जैसे जैसे आत्माको देखते जाते हैं, वैसे वैसे कर्म संतानका ह्रास होता जाता है। जैसे जैसे कर्मका नाश होता जाता है वैसे ही परमात्माके गुणोंकी वृद्धि होती जाती है । कर्मोको धीरे धीरे कम करके सम्राट् एक विशाल व सुन्दर आत्मभवन तैयार कर रहे हैं जैसे कि एक चतुर कारीगर टॉकीसे पत्थरको उकेरकर सुन्दर मंदिरका निर्माण करता हो। कभी कभी आत्माको ज्ञान व कांतिके साथ देख रहे हैं और कभी केवल ज्ञानरूप ही देख रहे हैं । अर्थात् कभी निर्विकल्पकरूपसे उसका अनुभव होता है और तत्क्षण विकल्पकी उत्पत्ति होती है। विकल्पके बाद निर्विकल्प, उसके बाद विकल्प इस प्रकार बराबर परिवर्तन होता है । जैसे जलमें पवनके संचार होनेसे उसमें तरंगें उठती हैं एवं पबनके स्थिर होनेसे जल भी शांत रहता है उसी प्रकार इस आत्माकी भी अवस्था है । चित्तमें चंचलता होनेसे विकल्पोंकी उत्पत्ति और चित्तमें स्थिरता होनेसे निर्वि कल्पक अवस्था होती है । निर्विकल्पक अवस्था बहुत देरतक रह नहीं सकती, क्योंकि ध्यानका उत्कृष्ट समय अंतर्मुहूर्त बतलाया है । इसलिये उसके बाद तो विकल्पकी उत्पत्ति होनी ही चाहिये । कभी भरतेश विचार करते हैं मैं भिन्न हूँ, मेरा शरीर भिन्न है उससे कर्म भिन्न है। उसी समय मैं शब्दको वे भूल जाते हैं, एकदम सिद्धोंके समान परमानंदमें मग्न हो जाते हैं । ध्यानकी अवस्थामें आत्माको देख रहे हैं और साथ ही कर्मोंके पतनकी भी देख रहे हैं। उन्हें कर्मो का नाश करनेवाली इस अद्भुत विद्यापर प्रसन्नता भी होती है । प्रसन्नता के मारे अन्दर ही अन्दर कभी कभी भरतेश गुनगुनाते हैं कि हे परमगुरु परमाराध्य गुरु हंसनाथ । तुम्हारी जय हो । कभी इसे भी भूलकर वे फिर एकाग्रावस्था में मग्न होते हैं। फिर उसमें भी आनंद आनेपर एकदम कह उठते हैं श्री निरंजनसिद्ध ! सिद्धान्तसार नित्यानंद तुम्हारी जय हो ! उनका यह कहना उन्हीं को सुननेमें आता है। दूसरा कोई भी उसे सुन नहीं सकता । उस समय भरतेश साक्षात् ऐसे मालूम होते थे मानो उज्ज्वल अदृष्ट व अश्रुतपूर्व चाँदनी में एक उज्ज्वल मूर्तिकी स्थापना की हो। इतना ही १५ १६१
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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