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________________ १६० भरतेश वैभव दर्शन होता था और उस समय उनको आनद भी होता था। जिस समय चंचलता आती थी उस समय एकदम अंधकार होता था और उसी समय कुछ दुःख भी होता था अर्थात् भरतेश एक ही समय मोक्ष ब संसारकी दशाका अनुभव करते थे। ___ अब उनके चारों और प्रकाश हैं, ज्ञान है, सुख है, शक्ति है । जैसे कोई आकाशको देख रहे हो, वैसे ही अपने शरीरस्थ आकाशरूप आत्माको वे देख रहे हैं। आकाशमें चित्र खींचनेके समान वहाँपर भी आत्माके स्वरूपको चित्रित कर रहे हैं। । उनको अपने शरीरके अंदर सूर्यसे भी अधिक प्रकाश दिख रहा है परन्तु उसमें उष्णता नहीं है। आश्चर्य यह है कि उसमेंसे कर्म बराबर जलकर निकल रहे हैं। उष्णतासे रहित अग्नि कर्मको जला रही। है इस आश्चर्यप्रद घटनाको सम्राट् देख रहे हैं । जिस प्रकार आकाशमें अनेक वर्णके मेघपटल इधर उधर संचार करते हैं उसी प्रकार सम्राटके ध्यानसे कर्मकी जड़ ढीली होकर वे बराबर नष्ट हो रहे थे। उनको भरतेश देख रहे हैं । जिस प्रकार कोयलेके पानीसे स्नान करनेपर कोयला उतरता हआ पानी दिखता है उसी प्रकार पापवर्गणायें उतरती हुई दिखती थीं। लाल या पीले पानीसे स्नान करते समय उतरते हुए पानीके समान पुण्यकर्म निकलते जा रहे थे। जिस प्रकार पानी पहाड़को कोरता है उसी प्रकार कर्मरूपी पहाड़को सम्राट्का ध्यानरूपी पानी कोर रहा है। जिन ! जिन ! आश्चर्य है ! ध्यानतत्वकी बराबरी करनेवाला लोकमें क्या है। __ जिस प्रकार सूर्यकी धारके समान पानी बरसे तो गीली मिट्टीका घड़ा पिघलकर नष्ट हो जाता है उसी प्रकार ध्यानवर्षासे तैजस व कार्मण शरीर बराबर पिघलकर जा रहे थे। गरुड़को देखनेपर सर्पकर विष अपने आप उतर जाता है, उसी प्रकार भरतेशके ध्यानमें जैसी एकाग्रता आती जाती थी उसी प्रकार कर्मरूपी विष उतरता जाता है साथमें अपनी आत्मामें ज्ञान तथा सुखकी मात्राको वृद्धि होती है। जिस प्रकार ध्यानकी गठरीकी रस्सीको ढीला करनेपर उससे ध्यान बाहर गिर जाता है उसी प्रकार कर्मकी गठरीकी रस्सीको ढीला करनेपर कर्मरेणु भी बाहर गिरते हैं। केवल ध्याताको ही दिखते हैं ।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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