________________
भरतेम वैभव
१५९ आधारमें रहनेवाले श्री सिद्धपरमात्माको अत्यन्त भक्तिसे पूजन की व उनका ध्यान किया।
उन अनन्त सिद्धपरमात्माओंकी भक्ति कर अब सम्राट्ने ध्यान के अभ्यासको स्थगित किया। वे एकदम अब अभेद भक्तिको ओर गये । अब उन्होंने इन्द्रिय व मनको गति रोककर शरीररूपी जिनगृहके अन्दर तत्क्षण परमात्माका दर्शन प्रारम्भ किया मानों हाथपर रखे हुये दर्पणको ही देखते हों । अब भरतेश्वरको अपने शरीरके अन्दर प्रकाश ही प्रकाश दिखता है । जहाँ देखते हैं ज्ञान है, दर्शन है, सुख है, तीन लोकमें परम सुन्दर उस आत्माको उन्होंने उस समय साक्षात्कार किया।
परमात्मा इस शरीरके अन्दर ही है, परन्तु जो लोग बाह्य पदार्थोंको जानकर बाह्यपदार्थों की ओर ही उपयोग लगाते हैं उनको वह परमात्मा कभी दृष्टिगोचर नहीं होता है। वह मापने व तौलने में नहीं आ सकता है । गिनने में भी नहीं आ सकता है, ऐसा विचित्र पदार्थ है वह । भरतेशने उसे देख ही लिया। जिस प्रकार अनन्त आकाशको लाकर एक घड़ेमें भर दिया हो उस प्रकार अंगुष्ठसे लेकर मस्तकपर्यन्त आत्माको पूर्णतः देख लिया या यों कहिये कि भरतेशने तत्वोंका अन्त ही देख लिया।
उस समय भरतेशके विचारमें कोई चंचलता नहीं, शरीर जरा भी इधर उधर हिलता नहीं । मन में कोई चंचलता नहीं है । इधर उधरका विकल्प नहीं, केवल अपनी आत्मामें मग्न हो गये हैं। शरीरका स्पर्श रहने पर भी नहीं के समान है, जैसे सिद्धपरमात्मा तनुवातवलयसे स्पृष्ट होनेपर भी उससे बिलकुल पृथक हैं ।
भरतेशको उस समय यह अनुभव हो रहा था कि मैं चन्द्र मण्डलमें प्रवेश कर चुका है। उसी प्रकार वह आत्मकांति न दिखने पर उन्हें ऐसा मालूम होता था कि अब चन्द्रमण्डल मेघोंसे आच्छादित हो गया है। उस समय कुछ अन्धकार मालम होने लगता था। उसी समय फिर वह अपने विचारोंमें दृढ़ता लाते थे। तत्क्षण वह अन्धकार दूर होता था । परमात्माके प्रकाशकी जागृति होती थी। एक क्षणमें वहाँ अन्धकार फिर प्रकाश इस प्रकार क्रम क्रमसे होता था। जिस प्रकार स्वप्न व अर्धनिद्राकी अवस्थामें होता हो उसी प्रकार उस समय भरतेशको आत्मसाक्षात्कार हो रहा था।
जिस समय उन्हें प्रकाश दिख रहा था उस समय परमात्माका