SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भरतेश वैभव १५७ इसीलिए पर्वाभिषेकके बाद तत्वोपदेश में लगे हुए भरतेग व उनकी रानियोंको कोई भूख प्यासकी बाधा नहीं है। उसका कारण यह है कि उन्होंने अनेक भवोंसे भावना की थी कि अतृप्त चित्तको तृप्त करनेवाले हे परमात्मन् ! क्षणमात्र भी अलग न होकर मेरे हृदयमें बने रहो । हे सिद्धात्मन् ! आप सहज शृङ्गारके धारक हैं, सुज्ञान कलाके धारक हैं, अभंग भाग्यके नाथ है। इसलिए मेरे साथ रहकर मंगलमतिका दर्शन कीजिए। इसि तत्वोपदेश संधि अथ पर्णयोगसंधि I उधर भरतेश्वरकी रानियाँ जिनेन्द्र मंदिर की ओर चली गई, इधर भरतेश भगवान्को अर्ध्यप्रदान कर ध्यान करनेके लिए बैठ गये । कभी कभी भरतेश्वरजी ध्यानके लिये कायोत्सर्ग से खड़े हो जाते हैं और कभी कभी पद्मासन से बैठ जाते हैं। जब जैसी इच्छा होती है उसी प्रकार ध्यान करते हैं। आज वे पल्यंकासनसे बैठकर ध्यान करेंगे । वज्रासन, कुक्कुटासन, वीरासन आदि कठिनसे कठिन आसन वादेही भरतेशके लिये कोई कठिन नहीं है। फिर भी आज वे अपनी इच्छानुसार पद्मासनमें विराजमान होकर बज्रनिमित मूर्तिके समान हैं । भरतेश्वरने पहिले ध्यानसाधनके प्रतिपादक प्राणावाय पूर्व नामक शास्त्रको जैन मुनियों के स्वाध्याय करते समय सुना था। उसीके आधारपर आज वे ध्यानकी एकाग्रताके लिये वायुका संचार करने लगे । शरीरमें दस प्रकारके वायु कौन-कौनसे स्थानमें रहते हैं यह चे जानते थे । इसलिए उन दसों वायुओंको एक-एक में एक-एकको मिलाकर उनकी चंचलवृत्तिको हटाने लगे । मुलाधार बंध, ओड्याण बंध, जालंध बंध आदि योग साधन कर, क्रमसे पतंगके डोरेको ऊपर चढ़ाने के समान अपनी वायुको ब्रह्मरंधपर चढ़ाने लगे हैं । कुण्डल प्रदेशमें वातको चढ़ानेसे कामदेवका मद कम हो गया और मध्यप्रदेशमें वातके स्थिर होनेसे चंचलित एक स्थानमें स्थिर हो गया। कपोल स्थानमें वायुके स्तंभन करनेसे निद्राका विलय हो गया ।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy