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भरतेश वैभव
जानकारों की वृत्ति देखकर प्रसन्न होती रहें । परमात्मध्यान ही मुक्तिका साक्षात् कारण है, इस बातपर श्रद्धाकर सभी लोग पुण्याचरणको पालन करें, अवश्य ही मुक्तिका मार्ग भविष्य में तुम लोगों को दिखेगा |
चन्द्रिका देवी प्रसन्न होकर बैठ गई। इतनेमें ज्योतिर्माला नामकी रानी उठकर राजर्षि भरतसे प्रश्न करने लगी कि स्वामिन्! शास्त्रों में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी रत्नत्रय मुक्तिका साधन है ऐसा कहा है; परन्तु आप कहते हैं कि आत्मयोग ही मुक्तिका साधन है । यह आगमविरोधी उपदेश आपने क्यों दिया ?
भरतेश कहने लगे कि ज्योतिर्माला । तुमने रहस्यको जानकर ही यह प्रश्न किया है। अच्छी बात है, तुम्हारे विवेकपर मुझे प्रसन्नता हुई | अब सुनो मैं समझाता हूँ। तीन रत्न और आत्मामें कोई अन्तर नहीं है। आत्मा के स्वरूपको ही न कहते हैं। दर्शन व छान ये आत्माके स्वरूप हैं | दर्शन ज्ञान स्वरूप में स्थिर भावसे रहनेको चारित्र कहते हैं । इसलिये ये तीनों बातें आत्मासे भिन्न नहीं हैं ।
देवी ! रत्नत्रय दो प्रकारका है । आप्तागमगुरुओंका श्रद्धान व ज्ञानकर व्रतादिकोंमें लगे रहना व्यवहार रत्नत्रय है। गुप्तरूपसे आत्माका ही श्रद्धान करना, जानना तथा लीन रहना यह निश्चय रत्नश्रय है । पहिले तो व्यवहार रत्नत्रयका आश्रय करना चाहिये । बादमें निश्चयमें ठहर जाना चाहिये । देवी! उसी समय आत्माका संसार संबंधी दुःख नष्ट होता है और मुक्तिकी प्राप्ति होती है ।
इतनेमें ज्योतिर्मालाको एक शंका उत्पन्न हुई। कहने लगी स्वामिन् ! आपने यह कहा कि भगवान्की श्रद्धा करना व्यवहार और आत्माकी श्रद्धा करना निश्चय हैं तो क्या भगवान्से भी बड़ा आत्मा है ? यह बात तो हमारी समझमें नहीं आई । आप अच्छी तरह समझाइये |
भरतेश अपने मनमें विचार करने लगे कि अध्यात्मयोग अनुभव में ही आने योग्य विषय है । वह दूसरोंको कहने में नहीं आ सकता है । यदि नहीं कहें, तो मुक्तिकी प्राप्ति भी नहीं होती है। इन अबलाओं का व्यर्थ में अकल्याण नहीं होना चाहिये, इनको किसी उपायसे समझानা चाहिये ।
सचमुच में सम्राट् अत्यन्त विवेकी थे । वे हर एकके अन्तरंगको अच्छी तरह जानते थे । इसलिये वे प्रकट रूपसे कहने लगे ।
देवी ! शुद्धात्मयोग भगवान् से भी बढ़कर है यह अभी कहना उचित नहीं है। इस बातकी यथार्थताको तुम आगे जाकर ठीक ठीक समझोगी।