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भरतेश वैभव होगा या निर्जरा होगी। निर्जरा तो हो नहीं सकती, कर्मबंध ही होगा। इसलिए आप ऐसा कार्य क्यों करते हैं ? इस बातको हमें अच्छी तरह समझाइये।
भरतेश्वरने कहा देवी ! सुनो ! चित्तको अपनी आत्मामें स्थिर कर बाहरकी सब क्रियाओंको ज्ञानी कसीन भागो कता है। बैंगा करनेपर भी उसे कोई बंध नहीं होता है । यह ध्यानका प्रभाव है, उसे जरा अच्छी तरह समझो।
जैसे सौतेलीको प्रेम व इच्छासे यदि रहनेको कहें तो रहती है उसे यदि उपेक्षा भावसे कहें तो अपने पास नहीं रह सकती है। इसी प्रकार जो कर्मको अच्छा समझकर आदरपूर्वक स्वागत करते हैं उनके पास तो वह रहता है, अच्छीतरह बंधको प्राप्त होता है । जो उसे तिरस्कार दप्टिसे देखते हैं उनके पास बह क्यों रहने चला ? इससे वह शीघ्र ही निकल जाता है।
गीली मिट्टीके घड़े या तेलके घड़ेके ऊपर पड़ी हुई धूलके समान शुद्धात्मयोगको नहीं जाननेवाले अज्ञानी प्राणियोंका बन्ध है। नवीन सूखे मदकेपर पड़ी हुई धूलके समान तो आत्मरसिकोंका बन्ध है। शानीको भोग करनेपर भी कर्मबन्ध नहीं है । सागार धर्ममें रहनेपर भी वह अनगारके समान रहता है।
तब फिर आपको उपवास आदि झंझटमें पड़नेकी क्या आवश्यकता है क्योंकि भोगनेपर भी आपको बन्ध तो होता ही नहीं ।फिर आरामसे महलमें क्यों नहीं रहते ! चन्द्रिकादेवीने थोड़ा हँसकर कहा ।
देवी ! इतने जल्दी भूल गई मालूम होता है । मैंने कहा था कि भोगमें अत्यासक्ति करना कर्मबन्धका कारण है । इसलिये कुछ समयके लिये ही क्यों न हो, भोगको त्यागनेके लिये इन उपवासादिकको मैं करता हूँ; और कोई बात नहीं है।
चन्द्रिकादेवी कहने लगी कि स्वामिन् ! यह सब आपके परिचित विषय हैं. इसलिये सब प्रकारसे आत्मसाधन आप करते है, हमें वह आत्मभावना नहीं आती है । उसका उपाय क्या है ? उसे तनिक समझा दीजियेगा।
देवी ! किसीको भी परमात्मयोगको प्राप्ति नहीं होगी ऐसा मत कहो ! किसी किसीके हृदयमें वह आत्मभावना प्रकट होती है। जिनको उसका अभ्यास है, वे आत्मध्यान करती रहें, जिनमें शक्ति नहीं वे उन