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भरतेश वैभव वस्त्रके मलके स्थानपर पाप है। महाले पानी के गार पुण्य है। स्वच्छ पानीके स्थानपर आत्मयोग है । पहिले कुछ पुण्य संपादन करना उचित है । आत्मयोगमें जो रत है, उसे पुण्यकी कोई आवश्यकता नहीं है । इसलिये मैंने तुम्हें कहा भी था कि पुण्य व पापको समदृष्टिसे देखो । देवी ! यह जिनेन्द्रका वाक्य है । इसपर श्रद्धा करो।
विनयवती प्रसन्न हई। अब चंद्रिकादेवी नामकी रानी अन्य कुछ रानियोंकी शंकाको लेकर खड़ी हुई व प्रार्थना करने लगी, स्वामिन् ! आपने हमें अभीतक यह उपदेश दिया कि पुण्य ब पापको समदृष्टिसे देखकर छोड़ देना चाहिये, परन्तु इसमें कितना तथ्य है यह समझमें नहीं आता। कारण यदि ऐसा नहीं होता तो आप पुण्य कृत्यको क्यों कर रहे हैं ? जिनेन्द्रभगवानकी पूजा करना, मुनियोंको आहारदान देना, शास्त्रोंका स्वाध्याय व मनन करना, सज्जनोंकी रक्षा व दुर्जनोंकी शिक्षा, उपवास आदि बातें क्या पुण्यबंधकी कारण नहीं हैं ? इनको
आप क्यों कर रहे हैं ? केवल हमें ही उपदेश देना है क्या ? ___चेद्रिकादेवी ! ठीक है । तुमने बहुत सूक्ष्मदृष्टिसे विचार कर यह प्रश्न किया है । तुम्हारे हृदयमें जो शंका उपस्थित हुई वह साहजिक है। अब तुम अच्छी तरह सुनो, मैं तुम्हें समझाऊँगा, भरतेश्वरने कहा।
देवी ! मैं पुण्य क्रियाओंको करता हूं, क्योंकि मैं घरमें रहता हूँ। जबतक मैं घरमें रहे, तबतक गृहस्थोंकी मर्यादाका मैं उल्लंघन नहीं कर सकता। षट्कर्मोंका पालन करना मेरे लिये अनिवार्य होगा। दिगंबर दीक्षाको ग्रहण करनेके बाद पुण्यकर्मकी अपेक्षा करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है, फिर पुण्यक्रियाओंको एकदम छोड़ना चाहिए, परंतु राज्य शासन करते हुए पुण्यक्रियाओंको छोड़ देना राजाका लक्षण नहीं। ___ देवी ! मान लो, मैं कदाचित् आत्मानुभव होनेसे पुण्यवृत्तिको छोड़ भी दूं, परन्तु इस विषयमें लोग भी मेरा अनुकरण करेंगे अर्थात् वे भी पुण्य विचारोंको छोड़ देंगे। उन्हें आत्मयोग तो प्राप्त नहीं है । वे पुण्य क्रियाओंको छोड़ ही देंगे, फिर तीन पापबन्ध करके व्यर्थ ही दुःख उठायेंगे इसलिये पुण्यवृत्तिके मार्गको दिखाता हूँ।
चंद्रिकादेवीने पुनः प्रार्थना को स्वामिन् ! आपने कहा पुण्य पाप दोनों बंधके कारण हैं। दोनों हेय हैं। अब कहते हैं कि दूसरोंका अहित न हो इसलिए मैं पुण्याचरण कर रहा हूँ। अब आप ही कहियेगा कि दूसरों के लिये भी यदि मनुष्य हेय कार्यको करें तो उससे बंध