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भरतेश वैभव
१५३ अभी तो श्रीपंच-परमेष्ठियोंकी उपासना करो। भगवान् या पंचपरमेष्ठी आत्मासे भी बढ़कर हैं, परन्तु आत्मासे भिन्न रखकर उनकी पूजा करें तो वह उत्कृष्ट नहीं है । भगवान् अपनी आत्मामें हैं ऐसा समझकर उपासना करना यही उत्कृष्ट धर्म है।
देवी ! भगवान्को बाहर रखक र उपासना करोगी, तो उसमे पुण्यबंध होगा। उससे स्वर्गादिक सूखकी प्राप्ति होगी। यदि भगवानको अपनी आत्मामें रखकर उपासना करोगी तो सर्व कर्मोंका नाश होकर मोक्षसुख की प्राप्ति होगी।
कॉसमें, पीतलमें, सोनेमें, चाँदीमें व पत्थरमें भगवानकी कल्पना कर उपासना करना वह व्यवहारभक्ति है, भेदभक्ति है दुसरे शब्दमें इसे कृत्रिमभक्ति भी कह कहते हैं । अपनी निर्मल आत्मामें भगवान्को रख कर यदि उपासना करें तो वह अभेदभक्ति है, निश्चयभक्ति है या उसे ही परमार्थभक्ति कह सकते हैं।
देवी ! तुम्हें अब ज्ञात हुआ होगा कि व्यवहारमार्गको ही भेदमार्ग कहते हैं । निश्चयमार्गको अभेदमार्ग कहते हैं। ___अभेदमार्ग अत्यन्त महत्वपूर्ण है । वह कर्मरूपी सर्प के लिये गरुड़के समान है। इसलिये हमने तुम्हें कहा भी था सम्पूर्ण दुर्भावोंको अलग कर शुभभावको धारण करो, और उस शुभभावसे, उस अभेदमार्गको प्राप्ति करो जिससे तुम्हें मोक्षसुख की प्राप्ति होती है। ____ वह ज्योतिर्माला देवी प्रार्थना करने लगी स्वामिन् ! यह आपका कहना बिलकुल ठीक है। उस पवित्र मार्गको ग्रहण करना आपके लिये सरल है, परन्तु यह हमारी स्त्रीपर्याय है। हमारा वेष व आकार भी स्त्रीत्वसे युक्त है। आपने यह कहा था कि वह आत्मा पुरुषाकार रहता है, तो ऐसी अवस्थामें हम स्त्रियोंको उस पुरुषाकारी आत्माका ध्यान कैसे हो सकता है ? जरा यह समझानेकी कृपा करें।
देवी ! सुनो ! आत्माकी भावना करते समय उसे स्त्रीके रूप में ध्यान करनेकी जरूरत नहीं, और न उस समय अपनेको स्त्री समझनेकी जरूरत है। जिस प्रकारके भावसे उसे भावना करो उसी प्रकार वह दिखता है। यादशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी अर्थात् जिसकी जैसी भावना है उसको वैसी ही सिद्धि होती है यह क्या तुम्हें मालम नहीं है ?
देवी ! पहले पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ, रूपातीत इस प्रकार चार