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भरतेश वैभव
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मटकती हुई हमने अनन्त भव-भ्रमण किया, परन्तु आपके संसर्गसे हमें यह सन्मार्ग प्राप्त हुआ है ।
स्वामिन्! स्त्रियोंकी स्वाभाविक इच्छायें पुत्रोंको पानेकी, अच्छे अच्छे वस्त्रोंको पहननेकी एवं सुन्दर आभूषणोंको धारण करनेकी हुआ करती हैं । परन्तु उन इच्छाओंको छुड़ाकर आपने हमें नित्य सुखके मार्गको बतलाया । सचमुच में आप मोक्षरसिक हैं 1
हे पर्वदिनाचार्य ! उपवासके कष्ट तो रहने दीजिये ! अब आप कुछ धर्मामृतका पान कराइयेगा, यही हम लोगोंकी प्रार्थना है । यह कह कर विनयवती व विद्यामणि नामक दो रानियोंको आगे बैठाकर सभी स्त्रियोंने धर्मोपदेश सुना ।
भरतेश्वरने उपदेश प्रारम्भ करते हुए कहा विद्यामणि! सुनो! मैं भगवान् जिनेन्द्रके शासनको संक्षेप में कहूँगा ।
अनन्त आकाशके बीच तीन वातवलय अत्यन्त दीर्घरूपसे व्याप्त हैं ।
जिस प्रकार तीन पैतरेकी थैलीमें हम कुछ भरकर रखते हैं उसी प्रकार तीन बातोंके बीच में यह सर्व लोक है । जो ऊपर दिखता है, सो सुरलोक है । उस सुरलोकके अग्रभागमें मोक्षशिला है। उसपर अविनश्वर, अविचल, अनन्तसिद्ध विराजमान हैं। हम जहाँ मध्य लोक है । हे श्रावकी ! इस मध्यलोकके नीचे अधोलोक है । इन कहवं, मध्य व अघो नामक तीन लोकमें जीव सर्वत्र भरे हुए हैं एवं सुख दुःखका अनुभव करते हैं ।
रहते हैं वह
उर्ध्वलोकवासी देवोंको आदि लेकर नीचे के जीव हैं वे सब जन्ममरणके दुःखको अनुभव करते हैं। परन्तु सुनो ! सिद्धोंको जन्ममरणादि दुःख नहीं है ।
कभी तर सुर बनते हैं, सुर नर बनते हैं, कभी वे ही नारकी बनते हैं। एवंच हाथी, पशु, फणि व वृक्ष आदि अनेक योनियोंमें जाकर कर्मवश भ्रमण करते हैं। इस प्रकार जीवोंको कर्मके कारणसे प्राप्त होती है ।
अनेक प्रकारकी पर्याय
यह जीव कभी दरिद्र कहलाता है, कभी धनिक कहलाता है, कभी स्त्री होकर उत्पन्न होता है और कभी पुरुष । इस प्रकार कर्मके संयोगसे यह अनेक प्रकारके दुःखोंका अनुभव करता है ।
इतने में विद्यामणि हाथ जोड़कर खड़ी हो गई और पूछने लगी कि स्वामिन्! आपने कहा कि संसार दुःखमय है । सिद्ध लोकमें सुख है 1
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