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________________ १४४ भरतेश वैभव विकारी हो सकते हैं। धीरोंके हृदयमें उसका कोई प्रभाव नहीं हो सकता है । राजा भरत व उनकी स्त्रियाँ व्रतशूर थे। चित्तको अपने वामें करनेमें प्रवीण थे, इसलिए उस दिन घोर ब्रह्मचर्यको लेकर चित्तमें जरा भी ढिलाई न लाकर अपने व्रतमें दृढ़ थे । इसलिये उन्हें धर्मवीर कहना चाहिये । सचमुच में देखा जाय तो बात भी यही है। लोकमें जो चोरीसे भोजन करता है, यदि उसे किमीने बीचमें ही रोक लिया तो मनमें बड़ा दुःखी होता है। किसी मनुष्यका पेट पूर्ण रूपसे नहीं भरता हो तो उसे खानेकी आकुलता रहती है । परन्तु इन लोगोंको सुखकी क्या कमी है ! अत्यन्त तृप्त होकर सुखको प्रतिदिन भोगनेवालोंने यदि एक दिनके लिये उसका परित्याग किया तो उन्हें क्या नष्ट होता है? क भी नहीं । जिस प्रकार सूर्यके उष्णप्रतापमें तृप्त होनेपर भी नीचे शीतल जल रहने से कमल सूखता नहीं, उसी प्रकार उपवासकी गर्मी रहनेपर भी धर्मकथारूपी शीतल अमृतके होनेसे उन्हें उपवासके तापका अनुभव बिलकुल नहीं हो सका । बीके दर्भासनपर चक्रवर्ती विराजमान हैं। वे बीच बीचमें इधरउधर बैठी हुई अपनी देवियों की ओर देखते हैं । परन्तु आज ये उनकी स्त्रियोंके रूपमें नहीं दिख रही हैं, अपितु ये सब तपस्विनी हैं, इस प्रकार वे समझ रहे हैं । इसी प्रकार वे स्त्रियाँ भी जब कभी भरतेशकी ओर देखतीं या उनके साथ बात करतीं तो अपना पति समझकर नहीं बोलतीं अपितु आचार्य हैं, इस प्रकार समझकर देखतीं व बोलती हैं । सम्राट् भरतेशने सोचा, कुछ धर्मचर्चा करनी चाहिये । इस अभि प्रायसे वे अपनी स्त्रियोंसे कहने लगे कि तुम लोगोंको आज बड़ा कष्ट हुआ होगा । हमारे संसर्गसे कहीं उपवास व्रतसे ही तो ग्लानि नहीं हुई? उन देवियोंने सम्राट् प्रार्थना की, स्वामिन्! हम लोगोंको उपवासका कोई कष्ट हो नहीं हुआ है। अब जिस समय आपका उपदेश सुनने को मिलेगा, उस समय हमें उपरिम स्वर्गके देवोंसे भी अधिक सुखका अनुभव होगा। फिर ग्लानि कहाँकी ? हम लोगोंने उदरपोषणके लिये अनन्त जन्म बिताये । परन्तु गुणनिधि ! आत्मपोषणके लिये तो आपके पवित्रसंसर्ग से यही एक जन्म मिला है। हे राजयोगी ! अंतरंगको नहीं जानकर बाहर के विषयोंमें
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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