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भरतेश वैभव
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सम्राट्ने जिनपूजाको चलते समय मोक्षशृङ्गारको धारण किया । उन्होंने सबसे पहिले दीर्घ केशोंको झटकाकर अच्छी तरह बाँध लिया । ललाटमें श्रीगंधका स्थुल तिलक लगाया, वह साक्षात् धर्मचक्रके समान मालूम होता था, अथवा कहीं कर्मपुंजको तिरस्कृत करनेवाला चक्र तो नहीं है, ऐसा मालूम होता है। उसी प्रकार उन्होंने हृदय, भुजायें, कंठ आदि स्थानाम भी श्रीगंधसे षोडगाभरणोंकी रचना की ।
रत्नोंमें निर्मित कुंडल, कंठहार, कटिसूत्र आदि उस समय उनके शरीरमें अच्छी शोभा दे रहे थे। हाथ की अंगुलियोंमें सुवर्ण व रत्ननिर्मित अँगूठी, हाथमें सुन्दर कंकण व शरीरमें मोती से निर्मित यज्ञोपवीत आदि बहुत सुन्दर मालूम होते थे । उन्होंने अत्र शुद्ध रेशमी वस्त्रको पहिन लिया है। पैर में चाँदी के खड़ाऊ हैं । इस प्रकार अत्यंत शुचिर्भूत होकर शांत चित्तसे जिनमंदिर की ओर रवाना हुए। अब उनकी कठोर आज्ञा हैं कि जिनमंदिरको जाते समय मार्ग में उनकी कोई प्रशंसा न करें, इतना ही नहीं. कोई हाथ भी नहीं जोड़े। अब उनके साथ कोई राजकीय वैभव नहीं हैं। छत्र नहीं, चामर नहीं और कोई सेवक नहीं । राजा होनेका अभिमान भी नहीं है । उन सब बातोंको छोड़कर उन्होंने अब केवल संसार भय व प्रभुभक्तिको अपना साथी बना लिया है । वे एक शुद्ध श्रावकके समान जिनमंदिर जा रहे हैं। अपने अपने महलसे निकलकर उनकी रानियां भी मार्ग में उनके साथ हो रही है ।
रानियोंको पहिले से मालूम था कि आज पतिदेव के संयमका दिन है । इसलिये हम लोगोंको भी उचित है कि हम भी संयमपूर्वक दिन बितानेके लिये जिन मन्दिरको जायें । इस विचारसे सभी रानियाँ उनके समान ही योगस्नान एवं मोक्षशृंगार कर मार्ग में पतिके साथ होने लगीं । रानियांने भी जो मोहनञ्शृङ्गार नहीं किया है। जिनसे विकार उत्पन्न न हो ऐसे ही वस्त्र आभूषणोंको पहिनकर वे आई । विशेष क्या ? 'भरत व उनकी देवियाँ सामान्य चतुर नहीं हैं । परस्पर देखनेपर जरा भी कामविकार उत्पन्न न हो इसकी व्यवस्था उन्होने कर रखी थी। सचमुचमें पुण्य दिनमें पुण्यमय विचारोंसे रहना वे पुण्यपुरुषका कर्तव्य जानते थे ।
आश्चर्य है ! ये पतिपत्नी एक दूसरेको देखते थे परन्तु किसीके मनमें विकार उत्पन्न नहीं होता था । निर्विकारता व विनयभावकी ही यहाँ पर मुख्यता थी ।
यद्यपि उनको मालूम था कि पूजन व अभिषेकके लिये विपुल