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भरतेश वैभव
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हैं । हे राजयोगीन्द्र ! निज मन्दिरसे जिनमंदिरकी ओर प्रस्थान कीजिये ।
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इस प्रकार गानेवाली उन गायिकाओंके सुख गीतको सुनकर विभिन्न महलमें स्थित अपने विभिन्न रूपको एकत्रित कर लिया । और भरतेश मूलरूपमें आये, प्रत्येक पलंगपर सोये हुए भरतेश अब अदृष्य हो गये, इसे देखकर वे स्त्रियाँ भी आश्चर्यचकित होकर उठकर बैठी हैं एवं अपनी नित्यक्रियामें लग गई हैं ।
भावदृष्टिसे परमात्मा की भाववन्दना कर भरतेश्वरने भी बीतराग पदका उच्चारण करते हुए नेत्रोंको खोला ।
प्रातःकालमें उठकर सर्वप्रथम खड्ग, दर्पण, घी आदिका दर्शन करना कोई शुभ मानते हैं । परन्तु भरतेश्वर प्रातः काल में परमात्मदर्शनको परमशुभ मानते हैं ।
सुप्रभातको सुनकर वह पद्मिनी
भी उठकर बैठी हुई थी, भरतेश्वर ने कहा कि हे प्रिये ! मैं आगे होता हैं, तुम जिनमन्दिरको बादमें आना, यह कहते हुए तत्काल बहाँसे उठे ।
उन अन्तःपुरके शय्यागृहको छोड़कर अब भरतेश्वर बाहर आये हैं । सूर्य उदयाचलपर आया है। गुणनिधि राजसूर्य भरतेश्वर उदयाचलपर स्थित उस सूर्य को देखकर आगे बढ़े ।
हमारे प्रिय वाचकोंको आश्चर्य होगा कि ऐसे श्रृंगार विलास भोगमें रत भरत आत्म वैभवमें भी रत होते हैं, यह विषय सम्भवनीय हो सकता है क्या ? उनके अन्दर भोगरोगादिकोंकी वामना दूर कर आत्म समृद्धि करनेकी साधना कैसे आ सकती है, यह प्रश्न वास्तवमें विचारणीय है । परन्तु उन्होंने अनेक जन्मोंसे जो साधना की है उसका ही यह फल है, इसे भुलना नहीं होगा। वे सतत आत्मचिन्तन इम प्रकार करते हैं कि
हे मोक्षरसिक चिदंवरपुरुष ! क्षुधा, तृषा, निद्रा आदि दुःखोंको दूर करने की सामर्थ्य तुझमें है। तुम्हारा वैभव अतुल है । तुम मेरे अन्तरंग में सदा निवास करते हो ।
हे निरंजनसिद्ध सिद्धात्मन् ! आँख बन्द कर आत्मदर्शन करनेपर आत्मसुखको प्रदान करनेवाले आप परमानन्दस्वरूपी हैं। इसलिए हे पुण्यनुरुषाधिपति ! सदा मुझे सन्मति प्रदान कीजिये ।
इति शय्यागृह सन्धि