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भरतेश वैभव
अनेक स्त्रियां आकर गीत गा रही हैं। अंतःपुरके प्रत्येक द्वारपर वे खड़ी हैं और उदयरागमें गायन कर रही हैं। वेलावलि, भूपाली, गुजरी आदि रागों में सुन्दर आलापन करती हुईं वे मोई हुई उन रानियोंको कुशलतासे जगा रही हैं ।
भगवान् अरहंतके स्मरण करनेसे पापांधकार दूर होता है। इस अर्थ में उनका गायन हो रहा है। राजन् ! गुरुभक्तिके समान अरुणोदय हो रहा है । ताराओंका प्रकाश अस्तंगत है। शीतल पवन बह रहा है । हे वैरिनुपनभोभानु राजन् ! स्त्रियोंके बाहुपाशोंसे अब बाहर आनेकी कृपा कीजिये ।
अरुणोदय होकर किरणोदय भी हो गया है, है पुरुदेव अग्रकुमार ! सूर्यदर्शनके पहिले जगत् को अपने सुन्दर रूपके दर्शन देकर जगत्का उद्धार कीजिये |
चिन्तारहित दीर्घराज्यको पालन करनेवाले हे निश्चिन्त वैभव राजन् ! प्रमाजनों को चिन्तित पदार्थोंको देनेके लिए आप समर्थ हैं । इसलिए राजवेशमें आप चिन्तामणिरत्न हैं । आपका दर्शन दीजिये । शत्रुरहित वा राज्यको मान करते हुए अनेक को भी समान रूपसे सन्तुष्ट करनेवाले हे राजमनोज ! हँसते हँसते उठो, समय हो गया है। धर्मको भूलकर भोगमें आसक्त होनेवाले अभ्रम योगियोंके विषय में आप हँसते रहते हैं ।
भोगों में रहकर भी योगियोंके समान सुखानुभव करनेवाले है भोगराज ! आप उठो, वृत्तकुच धारण करनेवाली स्त्रियोंके अंतरंगको जाननेवाले आप पुरुषोत्तम है। स्वामिन्! नेत्र खोलो, चित्तत्वके अनुभवरूपी राज्यको पालन करनेवाले आप राजोत्तम हैं । आप उठो ।
हे शुद्धपयोगसंपन्न ! निरंजनसिद्ध आराधनाशील ! रत्नाकरसिद्धके प्रिय शुद्धनिश्चयमार्गरत ! राजन, उठो ।
आपका शरीर सोया हुआ है, चित्त आत्मकलामें मग्न है । इसे हम जानती हैं । तथापि हमारा नियोग होने से औपचारिक रूपसे हम यह कार्य कर रही हैं । और कोई बात नहीं ।
बाहर के सूर्यको देखकर अपने शरीरमें स्थित आत्मसूर्यको न देखनेवाले अन्धों को सुदृष्टि देनेवाले आप प्रत्यक्ष देव हैं । हे राजन् ! अब आप बाहर आइये ।
सूर्योदय हो गया है, राजन् ! आज भाद्रपद बदी चतुर्दशीका दिन