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भरतेश वैभव
१२९ मंचको कंपित न कर, कमलाक्षीका निद्राभंग न हो इस प्रकार धीरे से तकिया उसके मस्तकके नीचे सरकाकर वे उठे । वे चतुर हैं । कुल्ला किया। तांबल सेवन किया । पुनः मुखशुद्धि कर पद्मासन में आत्मचिंतन के लिए बैठे।
उस समय गड़बड़ नहीं, हल्लागुल्ला नहीं। प्रातःकाल पाँचका समय है। शरीरमें आपादमस्तक आत्मदर्शन हो रहा है। वह ब्राह्ममुहूर्त है। ब्रह्मयोगके लिए योग्य ममय है । उस समय भरतेश्वरने प्राणवायुको ब्रह्मरंध्र की ओर चढ़ाया। उसी समय उन्हें परब्रह्म परमान्माका दर्शन हुआ।
तरुणियोंके माथ मनमोक्त क्रीडा करके इंद्रियोंमें जड़ता आई थी। अब वह दूर हो गई है । अव पटुत्व आया है। इसलिए अब उन्हें परमात्म दर्शन हो रहा है । हंसतूल तल्पपर बैठे हुए भरतेश्वर जिस प्रकार राजहंस पानीको छोड़कर दूध ग्रहण करता है उसी प्रकार शरीर छोड़कर आत्माका ग्रहण कर रहे हैं।
परमात्माके स्वरूपको शब्दोंसे वर्णन नहीं कर सकते हैं । उसका वर्णन देखने में नहीं आता है। वह पकड़ने में नहीं आ सकता है। वह शून्यस्वरूप है । तथापि भरतेश्वर उनसे बोलने लगे, उसे देखने लगे । विशेष क्या ? उसे पकड़ भी लिया। भरतेश क्या सामान्य हैं ? नहीं, भावतपस्वी हैं।
केवल शरीरको धोकर, शरीरको सुखाकर बाहरके विषयोंमें लुब्ध होनेवाला क्या वह अधम जीव है ? मनको धोकर, मनको ही सुखाकर अंतरंगको पावन करनेवाला वह उत्तम पुरुष है।
स्त्रियोंका संसर्ग है तो क्या बिगड़ा? हससंधानीको ( आत्मविज्ञानीको ) वह सम्मोहित कर सकती है क्या ? पमिनी पासमें ही सोई हुई है । परन्तु भरतेश अपनी आत्मामें हैं।
प्रकाशपुंजमें डूबकर, सुखसागरमें स्नान कर कर्मके अहंकारको नष्ट किया है । इसीलिये उनके हृदयमें मैं प्रभु हूँ, मैं कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ, इत्यादि प्रकारके विकल्प भी उस आत्मचिंतनमें नहीं हैं। समस्त चिन्ताओं को दूर कर जिस समय वे आत्मनिधिका दर्शन कर रहे हैं समय कर्मरज अपने आप जर्जरित होकर पड़ रहे हैं। उसी समय आत्मारामरत भरतेशको सुज्ञान व सुखकी समृद्धि सम्पन्न हो रही है।
भरतेश ध्यानमें मग्न हैं । उन्हें एकाग्रचितनमें रहने दीजिये । इधर उदयाचलसे सूर्यका उदय हो रहा है । उसकी सूचना देनेके लिए नियुक्त