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भरतेश वैभव रतिक्रिया प्रारम्भमें क्या हुआ ? बीचमें क्या हुआ और अन्तमें क्या हुआ? इसका वर्णन करना बहुत हल्की बात होगी उसमें गम्भीरता नहीं रह सकती है। उन्होंने आगन्दस प्रॉड़ा की। इतना कहना पर्याप्त है। ___सब कुछ कहना ठीक नहीं है, गम्भीरता चाहिये इसलिये रतिक्रीड़ाका सामान्य वर्णन किया है।
रतिक्रीड़ाके ८४. आसन बन्ध हैं । ९६ रानियोंके उन कामबन्ध व कामासनोंमें क्रीड़ा करके उन सबको तृप्त किया। एकको एक बार भोगते हैं । दुसरीको पुनः भोगते हैं । इस प्रकार प्रत्येक रानीके साथ भरतेश्वर हैं । यंत्र निर्मित प्रतिमायें वहाँ बहत हैं। वे बीच-बीच में गुलाबजल, तांबूल, मुगन्धसेचन. पादमर्दन आदि देते हैं। उनकी सेवाओंको स्वीकार कर भरतेश्वर सुखनिद्रामें मग्न हैं । वहाँपर अनेक मंच है । मंच दोनों साथमें लगे हैं। एकपर भरतेश और अन्य मंचपर रानी सोई हुई है।
सुरतमुखांत निदा थकावट को दूर करनेवाली है। विवेकजागृतिके कारण है। हर्षको उत्पन्न करनेवाली है और अल्लासको भी जागत करनेवाली है । इसलिये अपनी स्त्रियोंके साथ भरतेश्वर निद्रित हैं ।
स्त्रियों के बांये हाथपर उन्होंने मस्तक रखा है । अपने बाँये हाथसे उनके शरीरको पकड़ रखा है। और अपने दाहिने हाथकी ओर परको उनके शरीरपर रख छोड़ा है। इस प्रकार बह सुखनिद्रा चालू है ।।
दृष्टि निमीलित है, ओष्ठ मुद्रित है । मंद श्वासोच्छ्वास चालू है । रतिमुखकी मुच्र्छा मस्तकतक चढ़ गई है। इसलिए परवश होकर वे सोये हुए हैं। चारों ही तरफसे रत्नदीपक ब मोतीके परदे है । पंक्तिबद्ध होकर शय्यामंच है । उनपर भरतेश्वर मोये हैं।
जिन ! जिन ! क्या आश्चर्यकी बात है । भरतेश्वरको गाढ निद्रामें स्वान पड़ रहे हैं । स्वप्न में भरतेश आत्मदर्शन कर रहे हैं। परन्तु उन स्त्रियोंको जो स्वप्न पड़ रहे हैं उनमें भरतेश्वर दिख रहे हैं। पुण्यजीवोंका नह लक्षण है। स्वप्न कभी दिखता है, कभी अदृश्य, इस प्रकार परम आनंदमें वे मग्न है।
उनकी निद्रा लघु है, गाढ़ नहीं। हंसतूलसदृश मृदुतल्पमें वे सुखनिद्रामें मग्न हैं। सब जगह शाखादेहसे युक्त भरतेश्वर सोये हैं। मूल देह जागृत हुआ।