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भरतेश वैभव है । ऐसा विचारकर भरतेश कहने लगे कि रूपाणी ! पद्मिनी इधर आओ मेरे पास आओ, तुम्हारे मनके दुःखको दूर कर दूंगा।
देव ! आप हमें क्यों बुलाते हैं ? आपके मनको प्रसन्न करनेवाले पात्र हम हैं क्या? किस मुंहसे हम आपको आकर मिलें ? आँखोंको पसन्द पड़ा तो मनको गो कन्द पड़ माना है। दो ही काम न रुचा तो मनकी बात ही क्या है, हमें अब समझानेके लिये क्यों बला रहे हैं ? बड़े दुःखके साथ वे दोनों कहने लगीं 'सुनो' तुम्हारे नत्यको देखते हुये मेरे मनमें कोई उपेक्षा नहीं थी, उस समय तांबूल लेने के लिए मुख फेर दिया था, इसमें दूसरा कोई भी हेतु नहीं था, सामने बैठे हुये मन्त्रीकी ओर न देखकर तुम्हें ही देखते बैठता तो 'यह गजा स्त्रियोंकी ओर ही टकटकी लगाता है, बड़ा कामी दिखता है।' इस प्रकारकी समझ मन्त्रीकी हो जाती, विचार करो, तुम्हारे प्रति मेरे हृदय में प्रेम है वह सबके सामने बतानेका होता है क्या ? कोमल अन्तःकरणको पत्थरके समान कठोर मत बनाओ, इधर आओ । भरतेश्वरने समझाकर कहा । __ 'राजन् ! बचन-चातुर्यसे हमें फंसाना नहीं, हमें आपकी पद्धति मालूम है । बनावटी बातें बन्द कीजिये, योग्य समयमें हमारा तिरस्कार कर अब हमको बनाते हैं, उत्तर नाटकके लिये शोभने योग्य नत्य हमने किया, आपने उसे तिरस्कारकी दृष्टि से देखा ना ? हमारी उस नाटकमें कोई अपवृत्ति नहीं थी, कोई अशोभनीय व्यवहार नहीं था, शास्त्रको छोड़कर कुछ किया ही नहीं था, हमने अपने अभिनयसे सर्व उपस्थितों को प्रसन्न किया परन्तु आपको प्रसन्न नहीं कर सकी। उसी समय अलग सरककर खड़ी होनेकी इच्छा मनमें आ गई थी परन्तु सामने बुद्धिसागर महामन्त्री बैठे थे। इसलिए गंभीर व्यवहारकी जरूरत है, समझकर • उपेक्षा की। अब आप हमें बनाने लगे है, अब यह खेल बन्द कीजिये । बस ! बहुत हो गया ! उन दोनों रानियोंने दुःखसे कहा ।।
भरतेश्वर - नहीं जी, इतने क्रोधित होनेके लिए मेरा कोई इसमें अपराध नहीं है । बिनाकारण मेरे प्रति दोष देना उचित नहीं है। • राजन् ! सबसे मीठी-मीठी बात कर नरम करनेकी कला आपके पास है, इसे हम जानती हैं । पत्थरको भी पिघलानेकी शक्ति आपमें है यह भी हमें मालूम है । अभिनयके समय हमसे उपेक्षा की । अब हमें
कष्ट देना उचित है क्या यह पूछकर हमें ही फिर कष्ट दे रहे हैं, क्या - यह उचित है ?' उन दोनोंने स्पष्ट व बेखट उत्तर दिया ।