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भरतेश वैभव
११५ रहा था, दश पद्यलास्य, विशति पपलास्य आदिकी कुशलता देखनेपर वास्तबमें अद्वितीय आनन्द हो रहा था, इसका रहस्य स्वामिन् ! आप ही जान सकते हैं।
बुद्धिमागर मन्त्रीके वचनको सुनकर भरतेशने कहा कि मन्त्रिवर्य ! इसमें क्या निकष है ? नम इसे नढाकर बोल रहे हो। इस जगत में स्वानुभवसुखकी अपेक्षा बढ़ाकर क्या है ? पात्र, गान, नृत्य आदि मुखका मूल्य उम आत्मीय सुखके सामने क्या है ? मन्त्री ! मुक्ति परम सुखमय स्थान है। उसके बीचमें विरक्ति सुख है। उसमें व्यक्त आत्मभावना मुख है, इन सब सुखोंमें विषय संयुक्तिका क्या मुल्य है ? उसे सुख कौन कहेंगे ? मातिशयपुण्यसे प्राप्त मुखको उदासीन मासे भोगकर में छोड़ देता हूँ । इतर समय में अपनी आत्मभावनामें मस्त रहता हूँ।
इस बातका परिचय तुम्हें नहीं है क्या ? केवल लोकरजनके लिए मेरी प्रशंसा कर दी । बस ! अव बंद करो, यह भेंट ले लो । यह कहते हुए वद्ध मंत्रीको अनेक वस्त्राभूषणोंसे सन्मान करनेके लिए हाथ बढ़ाया। परंतु बुद्धिसागरने उसे स्वीकार न करते हुए जानेका प्रयत्न किया 1 परंतु सम्राट्ने शपथ डालकर उन्हें रोका व अनेक उत्तमोत्तम वस्त्राभरण उसे प्रदान किये । - बुद्धिसागर मनमें विचार करने लगा कि इस लोकमें किसीको भी न दिखाने योग्य अंतःपुर नाटकको मुझे बताया 1 मेरे प्रति भरतेशका बड़ा अंतरंग-अनुग्रह है। इस आनंदसे उसका हृदय नाच रहा था । भरतेश्वरके द्वारा प्रदत्त वस्त्राभरण उन्होंने उन कलाकारोंको प्रदान किया। स्वयं निस्पृह होकर वहाँसे चले गये। सर्व सभाजन उसकी प्रशंसा करने लगे। ___ इधर बुद्धिसागर मंत्री चले गये। अब उन पात्रोंके सत्कार करनेका विचार भरतेशने किया । इतने में रातके १२ बजे थे। तथापि भरतेश्वर आनंद-मुद्रामें ही बैठे थे।
वाचकोंको आश्चर्य होता होगा कि सम्राट् भरतेशको बारंबार आनंदके ही प्रसंग क्यों आते हैं ? और वे सदा सर्वदा-आनंदमें ही क्यों रहते हैं ? इसका एकमात्र कारण कि उन्होंने अनेक जन्मोंसे जो आत्मसाधना की है उसका यह फल है। वे सदा आत्मचिंतन करते रहते हैं कि हे चिदंबर पुरुष ! ऊपर-नीचे अंदर-बाहर का भेद न करते हुए सर्वत्र सदा प्रकाशमान तेजःपुंज ! तुम मेरे हृदयमें सदा प्रज्ज्वलित होकर रहो।