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मरतेश वैभव करनेकी कला है या नहीं, हम नहीं कह सकते हैं । तथापि मैंने आपको प्रसन्न करनेका प्रयत्न किया है। यहाँपर नृत्य करनेवाली नेत्रमोहिनी व चित्तमोहिनी यह दोनों मेरी कन्यायें हैं । इसलिए उनकी कलाओंका अवलोकन कीजिये । यह निवेदन कर वह अंतर्धान हुआ।
अनेक परिवार, पाश्वस्थ, वाद्यसमूह, जाल, मृदंग, वीणा आदिके साथ नेत्रमोहिनी व चिंत्तमोहिनी वहाँ उपस्थित हुईं। सबसे पहिले नेत्रमोहिनी सम्राटको नेत्रसुखको प्रदान करने लगी तो चित्तमोहिनी चित्तसुखको उत्पन्न करने लगी। नेत्रमोहिनी व चित्तमोहिनीकी नृत्यकला, गानकला अपूर्व थी । उसमें उन्होंने आत्मतत्वका सुन्दर निरूपण किया । भरतेश्वर भी उस कलाका अवलोकन कर बहुत प्रसन्न हुए।
नत्यविद्याधर सामने आकर निवेदन करने लगा कि स्वामिन् ! नृत्यकला आपको पसंद हुई ! गायनकलामें रस आया ? दक्षिणांकने उस समय तत्काल उत्तर दिया कि सुन्दर कार्यक्रम हुआ। उन्हें चित्तमोहिनी व नेनमोहिनी यह नाम सार्थक रखा गया है। इसी प्रकार सर्व दर्शकोंने उनकी प्रशंसा की। भरलेश्वरने उन्हें विचित्र वस्त्राभूषणों को देकर सत्कार किया। उन दोनोंकी तृप्ति हुई। उपस्थित सबको आनन्द हुआ।
सर्व सभाजन वहाँसे उठकर जाने लगे। बुद्धिसागर मंत्रीको वहीं ठहरनेका संकेत मिल गया है। बाकी के लोग सम्राटको नमस्कार कर जाने लगे हैं । दक्षिणांक आदि सर्व मित्रोंको भी उन्होंने रवाना किया। इतनेमें घंटानाद हुआ। सूचना है कि परिवार सतियाँ मुख्य नाटककी तैयारी कर रही हैं। नाट्यगहका शृङ्गार कर नाटककी सर्व तैयारी हो गई है। भरतेश्वर बुद्धिसागर मंत्रीके साथ नाटककी प्रतीक्षा कर
- भरतेश्वरकी वृत्ति अपूर्व है। जहाँ जाते हैं वहाँ उस वातावरणमें मग्न हो जाते हैं । सर्वत्र उन्हें आनंद ही आनंद मिलता है। बाहरके लोगोंको उनके विषयमें शंका हो सकती है कि आत्मविज्ञानी सम्राट बाह्यविषयों में इतना रस क्यों लेते हैं ? परंतु मानव हर समय निश्चित रहे इसकी आवश्यकता है । इसलिए वे जहाँ भी हो उस परमात्माका स्मरण करते रहते हैं । अतः उनके हाथसे कहीं भी प्रमाद होनेकी चिंता नहीं है।
वे सतत उस चिदंबर परमात्माका स्मरण करते हुए कहते हैं कि हे परमात्मन् ! जिस समय परिणामोंमें भेद करके तुम्हारी तरफ