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________________ ११० भरतेश वैभव जगत्के सर्व खेलोंको देखते हुए अपने मनमें इष्ट अनिष्ट कल्पना न हो एवं आपके दर्शन मैं उदासीन भावसे कर सकू ऐसा विवेक मेरे हृदयमें सदा जागृत रहे । ऐसी सुबुद्धि मुझे दीजिये । "इति वीणा संधि ..- - ---- अथ पूर्वनाटक संधि सम्पूर्ण विश्वको भूलकर अपने आत्मयोगमें बार घटिकातक भरतेश्वर तल्लीन हो गये थे, लदनन्तर उन्होंने नेत्र खोला, सामने कुसुमाजी खड़ी हैं। स्वामिन् ! नाट्यशालामें जानेका समय हो गया है, भरतेश्वर 'जिनसिद्धशरण' पदका उच्चारण करते हुए उठे, और उचित शृंगार कर नाट्यशालाकी ओर प्रस्थान किये। अपनी रानियों व उनकी सखियोंके साथ भरतेश नीचे उतर रहे हैं उस समय साक्षात् चन्द्रमा तारागणोंके माथ आ रहा हो इस प्रकार मालम हो रहा है। नानाप्रकारके उत्तमोत्तम बस्त्र व आभूषणोंको धारण कर वे जब आ रहे थे तब परिचारिकायें विनयसे कह रही हैं कि नरलोकचन्द्र ! राजमन्य ! चतुरदेव ! भोगदेवेन्द्र ! भरनेश्वर आ रहे हैं। सावधान ! अपने शरीर सौगन्ध व शरीर तेजसे चारों ही दिशाओंको दीप्त करते हुए उस नाटकशालामें भरतेशने प्रवेश किया, और एक मुसज्जिन सिंहासनको उन्होंने अलंकृत किया। उस नाटकके सौंदर्यका वर्णन मैं किसलिए करूं ? करोड़ों रत्नोंसे निर्मित देवविमान भी उसकी बराबरी नहीं कर सकता है, इतना ही कहकर छोड़ देता हूँ। उस नाट्यभवन में सर्वत्र कलापूर्ण शृङ्गार दिख रहा था, अनेक प्रकारके चित्र, मोती, माणिक आदि रत्नोंकी झालरी _ *अत्यधिक वर्णनात्मक भाग होनेसे पाठकोंको अरुचि न हो इम दृष्टिसे पहिलेके संस्करणोंमें यह बीणा संधि, आगामी पूर्वनाटक संधि, उत्तरनाटक संधि, ताण्डवविजय संधि और शय्यागृह संधि ये प्रकरण छोड़ दिये गये थे। परंतु अनेक वाचकोंसे शिकायत आनेसे उन प्रकरणोंका सारांश मात्र इस संस्करणमें दिया गया है । सो हेयोपादेयविवेकसे रसग्रहण करें। -संपादक
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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