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भरतेश वैभव
१०९ उन प्रिय रानियोंका स्मरण भी नहीं है। इस समय उन्हें केवल अपनी आत्माका ही स्मरण है । उसके अलावा उनकी दृष्टिमें किसी भी अन्य वस्तुके अस्तित्वका ध्यान नहीं है।
भोगवासनाको खूब भोगकर योगसाधनामें जब मग्न होते हैं, उनके हृदयमें भोगवासनाका अस्तित्व बिलकुल भी नहीं रहता है। यही उनकी विशेषता है। एक कपड़ा छोड़कर अन्य कपड़ेको धारण करनेवालेके समान निविकार परिणतिकी उनकी उस समय स्थिति है।
उन्होंने दोनों ही नेत्रोंको बंद किया व अंतर्दष्टिको खोला। उस समय पौद्गलिक शरीर भी उनका नहीं था। उस समय उन्हें अष्टगुणात्मक शरीरको धारण करनेवाले इष्टपरमात्मका दर्शन वहाँपर हो रहा था।
शरीर जिनमंदिर था, मन सिंहासन था, उसपर बैठा हुआ निर्मल परमात्मा भगवान् जिनेंद्र देव हैं। इस प्रकार उस समय सर्व बाह्यचिंताओंको दूर करके अपने शरीरमें अपने ही अवधानसे अपने लिए अब अपने जिनेंद्रका वे साक्षात् दर्शन कर रहे हैं। आश्चर्यकी बात है कि अब उनके कर्मोंकी निर्जरा बराबर हो रही है। जैसे-जैसे कर्मोकी निर्जरा हो रही है वैसे-वैसे आत्मामें उत्साह व निर्मलता बढ़ रही है । उल्लासके साथ उन प्रदेशोंमें प्रकाश भी बढ़ रहा है । कभी प्रकाश, कभी अंधकार इस प्रकार विभिन्न रूपसे सखका दर्शन हो रहा है। अपनी कल्पनासे उन्होंने चाँदनीमें एक सिद्धबिंबकी रचना की व उसकी पूजा वे करने लगे। तदनंतर उस कल्पनाको गौण कर 'सिद्धोएं इस अनुभवमें वे मग्न हुए। वास्तवमें उनका सुख उस समय जिन व सिद्धोंके समान था।
सूर्यदेव अस्ताचलकी ओर गये। अंधुक अंधःकारका अनुभव होने लगा। आकाशमें नक्षत्रोंका दर्शन होने लगा है । भरतश्वर सायंकालीन सामायिकमें मग्न हैं। __ भरतेश्वर किसी भी आनंद-विलासके समय भी आत्मजागतिसे च्युत नहीं होते हैं। आत्मविस्मृति न होने देना उनकी विशेषता है। कारण कि कुछ समयतक भोग-विलासमें रत होनेपर भी पुनश्च वे आत्मलीन होते हैं । उस आत्मलीनतामें उनकी सदा यह भावना रहती है कि:
है चिदंबर पुरुष ! गुरुदेव ! तुम रत्नाकरसिद्धके मनके शृंगार हो। हे पापहर ! मेरे अंतरंगमें सदा निवास करते रहो। हे परमात्मन् !