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भरतेश वैभव शय्यागृहको लगकर एक दिवानखाना है। उस दिवानखानेमें बैठकर ही दोनोंने भोजन कर लिया। भरतेश्वर भोजनकर अब आनंदसे
योग्य समयको जानकर कुसुमाजी उपायसे निवेदन करने लगीं कि नाथ ! दुपहरको आप विश्रांति ले रहे थे, उस समय मेरे पास दो स्त्रियाँ आई थीं।
फिर क्या हुआ ? सम्राट्ने बीच में पूछा ।
स्वामिन् ! आज रातको ये नत्यकला प्रदर्शित करनेवाली हैं, उसे आप अवश्य देखें। कृपया इस बातकी स्वीकृति देवे जिससे उनका उत्साह भंग न हो। भरतेश्वरने उसे सहर्ष स्वीकृति दे दी। उसके साथ ही कुसुमाजीके अनेक प्रेम-व्यवहारसे सन्तुष्ट होकर उसे अनेक रत्ननिर्मित आभरणोंसे उसका सम्मान किया। ____ कुसुमाजी–स्वामिन् ! आप मेरे महल में आये यह मेरे अहोभाग्य की बात है। मुझे तो स्वर्गसंपत्ति मिलने का आनन्द हुआ है । मैं आपकी दासी हैं । इस बाह्योपचारकी इस समय क्या आवश्यकता है ?
भरतेश देवी ! तुम्हें वहाँ दरबारमें ही आभूषणोंको देनेकी इच्छा थी। परन्तु लोगोंके सामने तुम लेनेसे संकोच करती। इसलिए यहां एकांतमें दे रहा हूँ। इसे अस्वीकार मत करो। मेरे कामनाकी पूर्ति करनी पड़ेगी।
कुसुमाजी- मेरे पास आभूषण भरे पड़े हैं। मुझे जरूरत नहीं। क्षमा कीजिये नाथ ! और कोई बात नहीं है।। ____ भरतेश्वरने उसी समय उसके हाथपर रखते हुए कहा कि तुम्हें मेरी शपथ है। अब कुछ भी नहीं बोलना । इसे लेना ही पड़ेगा। इस प्रकार उसके हाथपर आभरणोंका एक बड़ा बोझा ही रख दिया । कुसुमाजीने हँसते-हँसते ही उसे स्वीकार किया।
उसी प्रकार उस समय भरतेशने कुसुमाजीकी बहिन, सखी, दासी वगरह जो भी थीं उन सबका वस्त्राभूषणोंसे सत्कार किया। इतनेमें सूर्यदेवने अस्ताचलकी ओर प्रयाण किया।
भरतेश्वर हाथ-पैर धोकर शुचिर्भूत हुए एवं ऊपरके महलकी ओर गये । बहाँपर जिनेंद्र भगवंत व सिद्धोंकी यथाविधि पूजा कर अचलित पचासन लगाकर बैठे। आँख मींचकर परमात्मयोगमें लीन हुए।
कुछ समय पहिले अपनी रानियोंके साथ सरस व्यवहार किया था इस बातको वे अब बिलकुल भूल गये हैं। इतना ही नहीं, अब उन्हें