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भरतेश वैभव
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है, सरसोंमें सागरको किया गागरमे सागरको जिस प्रकार भरते हैं, एवं आकाश मिट्टी में जिस प्रकार डूबता है उस प्रकार यह आत्मा इस शरीरमें अटककर पड़ा है ।
इसके अंतरंगका अभ्यास अथवा अवलोकन करना कठिन है । बाहरकी स्त्रियोंके चित्तको समझना बहुत कठिन भी नहीं, आश्चर्य भी नहीं ।
घोड़े के समान चारों ही तरफ दौड़नेवाले चित्तको स्थिर कर आत्मदर्शन करना कठिन कार्य है । मदोन्मत्त स्त्रियोंको प्रसन्न करना कोई कठिन कार्य नहीं। इस प्रकार उस गायनमें आत्मकलाका वर्णन हो रहा है ।
योगविद्या आत्मतत्व ही सर्वश्रेष्ठ व अन्तिम साध्य है । भोगमें स्त्रीभोग अंतिम है, इस प्रकार योग व भोगशास्त्रोंकी तुलना कर वह कुसुमाजी गा रही हैं।
रतिकार्य में उपेक्षा कब होती है, रतिकार्यकी इच्छा कब होती है, हतसुख क्या है, हितसुख क्या है इन सबका विश्लेषण कर वह उस गोतमें वर्णन कर रही हैं। जिस प्रकार योगशास्त्रके विविध अंगों का कुशलताके साथ वह वर्णन करती है उसी प्रकार भोगशास्त्रका भी सांगोपांग विवेचन चातुर्य से कर रही हैं। कुसुमी ! बहुत सुन्दर ! शाहबास ! पुनः बोलो ! उसके गानचातुर्यको सुनकर उससे नाना प्रकार विनोद व्यवहार भी कर रहे हैं । दोनोंके परस्परके विनोद व्यवहार चालू हैं | तांबूलादिका आदान-प्रदान चालू है। गुलाबजल, अत्तर, फुलेल वगैरह सुगन्धद्रव्य एक दूसरेको दे रहे हैं। दोनोंको उस समय रतिसुखकी इच्छा हो रही हैं। यह भी दोनोंने जान लिया, तदनंतरके रतिसुखका वर्णन करना अशक्य है । उस दंपतिने विविध विनोदपूर्ण पद्धतिसे कामसागर में यथेच्छ बिहार किया इतना ही कहना पर्याप्त है ।
इस प्रकार सुखबिहार में रहते हुए ही शंखनादका शब्द सुनाई दिया । कुसुमाजीने समय जानकर कहा कि स्वामिन्! संध्याकालके भोजनका समय हो गया है। अब अपन भोजनशाला की ओर जावें ।
भरतेश्वर - कुसुमि ! अब मैं उधर जाना नहीं चाहता हूँ। अन्नपानकी सर्व सामग्री इधर हो मंगा लेना, यहीं पर अपन भोजन करेंगे । तदनुसार भोजन सखियोंके द्वारा वहीं उपस्थित हो गया । दोनोंने वहीं पर भोजन किया, तृप्त हुए एवं तांबूल भक्षण भी किया ।