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भरतेश वैभव
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शालाकी ओर गये, वहाँ पूर्व से ही सब तैयारी थी। नाट्यशाला तो स्वर्ग विमानके समान थी ।
रात्रिके बारह बजेतक उन्होंने नाट्यकला देखी, नेत्रमोहिनी, चित्तमोहिनी आदि स्त्रीपात्रोंने अपना अभिनय बहुत उत्तमतासे करके
बतलाया ।
बारह बजे के बाद आगत परिवारको उपचारके साथ भेजकर सम्राट् स्वयं शय्यागृहकी ओर चले गये । शय्यागृहमें जानेके बाद अपने ९६ हजार रूप बनाकर अलग रनिवासमें 'भेज दिया व बादमें सुखनिद्रा में अनेक प्रकारके सुख भोगते-भोगते विश्रांति ली ।
सुरतसुखके बादकी निद्रा भी सुखमय हो जाती है । उस समय उस निद्रा में भी भरतेशको स्वप्न में परमात्मा दिख रहा है। उन सब रानियोंको स्वप्न में भरतेश दिख रहे हैं । न मालूम वे कितने पुण्यपुरुष होंगे ?
इधर-उधर ही स्त्रियाँ सोधी हुई हैं । परंतु भरतेश उनसे अलग ही हैं। क्योंकि उन्हें स्वप्नमें वे स्त्रियाँ नहीं दिख रही हैं, परंतु अपनी प्रियवस्तुका ही उन्हें दर्शन हो रहा है। आत्माका दर्शन होनेसे स्वप्न में ही आनंदसे कभी-कभी चीज है, कभी हँसते है ! कभी रोमांच होता है।
भरतेशकी निद्रा भी दीर्घ नहीं है। कुछ ही देरके बाद जागृत होकर उसी शय्यापर वे बैठ गये ।
सभी रानियाँ सो रही हैं, परन्तु आप अकेले बैठकर ध्यान करने लगे । संध्याको उन्होंने ध्यान किया था। उसके बाद उन्होंने नाटकनृत्य देखने में अपना समय लगाया था । बादमें आकर अपनी देवियोंके साथ सुख भोगा । बादमें निद्रा ली। इन सबके सम्बन्धसे आये हुए कर्मो के खातेको बराबर करनेके लिये अब उनका उद्योग चालू है ।
वे जिस समय उठे उस समय पलंग जरा भी हिल नहीं सका । एक शब्द भी बोले नहीं । उनको पूरा-पूरा ध्यान था कि मेरे उठनेसे इन देवियोंकी निद्रा भंग न हो जाय ।
उसी समय उठकर सर्वप्रथम उन्होंने जल लेकर कुल्ला किया । फिर पल्यंकासनमें बैठकर आत्मानुभव करने लगे 1
वह ब्राह्ममुहूर्त था | किसीका भी हल्ला नहीं था । इसलिए अत्यन्त तन्मयता के साथ वे आत्मयोगमें लगे रहे । मस्तकसे लेकर पादपर्यन्त उस समय उन्हें अपना ही अनुभव हो रहा था ।