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भरतेश वैभव तदनंतर भरतेश शुद्ध होकर ऊपरके महलमें चले गये। वहाँपर जिनेन्द्र ब सिद्धपरमेष्ठियोंकी उचित रूपसे पूजाकर अचलित पद्मासनमें विराजमान हो गये। आँख मींचकर परमात्माके योगमें मग्न हो गये। - उस समय थोड़ी देर पहिले अपनी रानी के साथ जो सरस व्यवहार किया था उसे एकदम भूल गये । इतना ही नहीं उस प्रिय रानीका भी उन्हें अब कोई स्मरण नहीं।।
उस समय भरतेश केवल अपनी आत्माको जान रहे हैं। इसके सिवाय और किसीका वहाँ पता नहीं है।
भोगोंको खूब भोगकर जब योगमें रत होते थे तब उनमें भोगोंकी वासना बिलकुल भी नहीं रहती थी। यही उनकी विशेषता है। एक कपड़ा छोड़कर दूसरे कपड़ेको पहननेवालेके समान उस समय उनकी अवस्था थी।
उन्होंने दोनों नेत्रोंको बद कर लिया व एकमात्र अन्तर्दृष्टि खोल ली । उस समय पौद्गलिक शरीर भी उनका नहीं था । वे अष्टगुणारमक शरीरसे उस इष्ट परमात्माका अच्छी तरह दर्शन करने लगे।
शरीर जिनमंदिर था, मन सिंहासन था, उसके ऊपर विराजमान निर्मल आत्मा जिनेन्द्र भगवान थे।
इस प्रकार उस समय सर्व प्रकारको बाह्य चिंताओंको छोड़कर वे अपने शरीरमें ही जिनेन्द्र भगवानका अनुभव कर रहे थे।
इसी समय कर्म बराबर खिरते जाते हैं जैसे-जैसे कर्म खिरता जा रहा है वैसे ही आत्मामें उल्लास बढ़ता जाता है । उल्लासके साथ-साथ प्रकाशकी भी वृद्धि हो रही है। कभी प्रकाश व कभी अंधकार उस समय तरह-तरहसे उन्हें आत्मसुखका दर्शन हो रहा है।
अपनी कल्पनामें उन्होंने एक सिद्धबिंबकी रचना की व उसकी ही पूजा करने लगे। तदनंतर उसको भी गौण कर वे 'सिद्धोऽहे' इस प्रकार के अनुभवमें मग्न हो गए। सचमुच में उस समय उनका सुख जिन व सिखोंके समान था। __इस प्रकार सब बाह्य विकल्पोंको हटाकर उन्होंने आत्मयोगमें चार घटिका प्रमाण समयको व्यतीत किया। चार घड़ीके बाद आँखें खोल लीं । सामने कुसुमाजी खड़ी हैं । कहने लगी स्वामिन् ! समय हो गया है । अब नाट्यशालामें पधारिये उसी समय सम्राट् 'जिनशरण' शब्दका उच्चारण करते हुए वहाँसे उठे और योग्य शृङ्गार कर नाटय