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भरतेश वैभव
उस मुहूर्तका नाम ब्राह्मणी था ही, क्योंकि ब्रह्म नाम आत्माका है । वह उस समय उस ब्रह्मके दर्शनके लिये अनुकूल था । इसलिये सबसे पहिले उन्होंने शरीरके पवनोंको ब्रह्मरंध्रको दौडाया और शरीरके अन्दर ब्रह्मका दर्शन करने लगे। उस समय सम्राट् हंसतुलतल्प पर विराजमान थे । हंसके समान ही इनकी महती वृत्ति थी। जिस प्रकार पानीको छोड़कर हंस दूध ग्रहण करता है, उसी प्रकार सम्राट् भी शरीरको छोड़कर आत्माका ही ग्रहण करने लगे ।
आत्मा बचनके अगोचर है, आँखोंसे देखनेमें नहीं आ सकता है। क्योंकि वह जड़स्कंध नहीं है । परन्तु भरतजी बड़े चतुर थे। उन्होंने उसे देख लिया। इतना ही नहीं, उस आत्माको साक्षात् ग्रहण कर लिया। क्या वह कोई दीनतपस्वी हैं ? नहीं, जिसने अपने भाव में इतनी तैयारी की है कि वह ऐसी शून्यसदृश आत्माका भी साक्षात्कार कर ले, वह राजयोगी भरत सचमुच में दीनहीन नहीं हैं। अन्य राजा तो धनयुक्त होते हुए भी गुणदरिद्र हैं ।
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लोकमें शरीरको धोकर तथा उसेही सुखकर बाह्यजनोंका अनुरंजन करनेवाले तपस्वी बहुत हो सकते हैं । परन्तु यह भरतेश वैसा है नहीं । यह तो मनको धोकर निर्मल करता है । और उसी मनको सुखाता है । भरतेश्वरको बाह्य बातोंकी अपेक्षा अन्तरंगके गुण बहुत प्रिय है ।
चारों ओर स्त्रियों का समूह रहा तो क्या हुआ ? क्या आत्मानुभवके हृदय विकार उत्पन्न हो सकता है ? पासमें कुसुमाजी सोई थीं, फिर भी सम्राट् अपने आत्मामें मग्न थे ।
वे प्रकाशमय, चिन्मय समुद्र में बराबर डुबकी लगाते जा रहे हैं समय-समयपर आनन्दकी वृद्धि होती जा रही है। आत्माका आनन्द तो बढ़ रहा है, परन्तु कर्मोंका तीव्र अपमान हो रहा है । इसलिये वे कर्म 'अपने मानभंगसे दुःखी होकर निकलते जा रहे हैं। अभीतक व्यावहारिक विकल्पमें व भोगों के बीच में कमका कर्ता हूँ, मैं कर्मोंका भोक्ता हूँ, इस प्रकारके विचार प्रकट हों रहे थे । तब वे कर्म अपने सत्कारसे प्रसन्न होते थे, परन्तु सम्राट्के विकल्पमें वह बात नहीं है । उनको विश्वास हो गया कि मैं कमका कर्ता नहीं हूँ और न भोक्ता हूँ, इसलिये कर्म भी बहुत लज्जित हुए हैं ।
इस प्रकार सम्पूर्ण बरह्मविचारोंको छोड़कर भरतजी परमहंसको देख रहे हैं। क्षणक्षणमें कर्मराज निकलता जा रहा है। ज्ञान व सुखका