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भरतेश वैभव
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आंखों को बंद कर अन्त्यमंगल करते हुए परमात्माका स्मरण किया । तदनन्तर आँख खोल ली । कुसुमाजीने भी बहुत भक्तिसे नमस्कार किया। बाहरकी घण्टाध्वनि भी अब बन्द हो गई ।
तदनन्तर 'जिनशरण' शब्द का उच्चारण करते हुए सम्राट् बहाँ से उठे व ऊपरके महलकी ओर चले गये । महलकी सीढ़ियोंपर चढ़ने में भोजनके बाद पतिक्षेत्रको कष्ट होगा इस विचारसे कुसुमाजी उनको अपने हाथका सहारा देकर चढ़ने लगीं। ऊपर पहुँचकर वहाँपर पहिले से ही सजी हुई एक सुन्दर कोठरी में सुसज्जित पलंगपर वे बंट गये । कुसुमाजीने तांबूल, गुलावजल व सुगन्धद्रव्य आदि देकर सत्कार किया। भरतेश वहीं पर जरा लेटे । कुसुमाजी उनके पैर दबाने के लिये बैठी । परन्तु भरतजी ने कहा प्रिये ! जाओ, बहुत समय हो चुका है। भोजन कर आओ। इस प्रकारकी आज्ञा पाकर वह सती अत्यन्त आनन्दसे भोजन करनेके लिये चली गई ।
भरजी वहाँ पड़े पड़े ही आँख मींचकर विचार करने लगे, मेरी आत्मा भिन्न है। यह भोजनादिक बाह्य उपचार शरीरके लिए है | आत्मा के लिए नहीं । मेरी आत्मा क्षुधा से पीड़ित नहीं, यह सब कुछ मुझे शरीर के लिए करना पड़ता है। इस प्रकार विचार करते-करते उनको अन्नके मदसे जरा निद्रा आ गई। तकियाके ऊपर बाँयें हाथको रखकर उसपर उन्होंने अपना मस्तक रखा था और दाहिने हाथ को अपनी जंधाके ऊपर रखकर उस समय वे नींद ले रहे थे ।
उस समय भी उनकी शोभा अपार थी। नींद बीचमें कभी-कभी ओंठको हिला रहे हैं । कण्डको हिला रहे हैं । कण्ठ व मुस्लपर थोड़ासा पसीना दिख रहा है, और कोई प्रकारका विकार नहीं है ।
वीणाके तारसे जिस प्रकार सुस्वर निकलता हो उस प्रकारका स्वर उनके श्वासोच्छ्वाससे निकलते थे । दूरसे देखने वालोंको उस समय वे सुलाई हुई सोनेकी पुतलीके समान मालूम होते थे ।
कुसुमाजी भोजनको जाते समय पतिकी निद्रा में कोई बाधा न हो इस विचारसे बिलकुल धीरेसे गई परन्तु फिर चक्रवर्तीके शरीर की सुगन्धिपर मुग्ध होकर अनेक भ्रमर आकर वहाँ गुंजार कर रहे थे उनको कौन रोके ? तो वे सुनते कहाँ ? भ्रमरोंके सुमधुर गुंजनके वश होकर भरतजी हल्की नींद ले रहे थे। इधर कुसुमाजी उत्साह में मग्न थीं।
वह पतिदेवको सुलाकर सबसे पहिले रसोईघरमें पहुँची थीं। वहाँ जाकर हाथ पैर धोकर उसने भोजन किया । आज अपने घरमें पतिदेव