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________________ भरतेश वैभव पंखेसे हवाकर गरम चीजोंको ठण्डी कर रही थीं। कभी-कभी चकवर्ती के पर गुलाबजल छिड़ककर उनके शरीरको भी शांत कर रही थीं। बीच में ही हाथ धोकर फिर थालीके अन्न व शाक मिलाकर देती थीं और बायें हायसे गरीर संवारती भी जाती थीं। और फिर भरतेश महमें एखाद्य ग्रास दे रही थी. पुन: हाथ धोकर आता पायोको परोस रही थी । भरतजी यदि भोजनके बीच में पानी पीनेकी इच्छा करें, उनके कहनेके पहिले ही वह जलकलशको उठाकर देती थी। मालूम होता है कि भरतके हृदय में ही वह प्रवेश कर चुकी हैं। अच्छेअच्छे मधुर द्रव्योंको चुन-चुनकर वह मरतेशके हाथमें रखती हैं । भरतजी आनन्दके साथ उसे खाते जाते हैं। यदि मिठास अधिक हो गई. तो नमक देती हैं। इस प्रकार पतिदेवकी रुचिको ध्यान में रखती हुई उनको तरह-तरह के रसोंका आस्वादन कराती जा रही हैं। भरतजी अपने मनमें जिस पदार्थकी चाह करते हैं, उसे इशारेसे माँगनेके पहिले ही कुसुमाजी उनकी थाली में अर्पण करती थी। राजा भी इस बातसे सन्तुष्ट हो रहे थे। प्रेमकी पराकाष्ठा होनेसे शरीर दो होनेपर भी आत्मा तो एता ही है । इस वाक्य की सत्यता सचमुच में वहाँ दिखती थी। जिन पदार्थोसे सम्राटको तृप्ति हो चुकी उन पदार्थों की थालीको एक ओर सरकाकर अन्य विशिष्ट पदार्थोको परोसती हैं । भरतजी आंखोंसे इशारा करते हैं कि बस ! अब मत परोसो ! कुसुमाजी हाथ जोड़कर प्रार्थना करती हैं कि स्वामिन् ! थोड़ा और लीजिये। इस प्रकार कहकर तरह-तरह के पक्वान्नपानको बड़ी भक्तिसे परोसती जाती हैं। इतनमें भरतेश पुनः अपना सिर हिलाने लगे । तब कुसुमाजी बोली स्वामिन् ! अब दो ग्रास और लीजिये। यह कहकर आग्रह करने लगी। दो ग्रासके बदले में कई ग्रास हो गये। पुनः यह प्रार्थना करने लगी पतिदेव ! आपके लिये जिन-जिन पदार्थोंको मैंने बनाया है उनका स्वाद आपको अवश्य लेना होगा। भरतेश भी उसकी विचित्र भक्तिपर हंसते हुए उनको जरा जीभपर लगाकर छोड़ते जाते थे। इस प्रकार बहुत विनय-भक्तिके साथ कुसुमाजीने अपने पतिदेवको भोजन कराया। भरतेश भी तृप्त हो गये। उन्होंने हस्तप्रक्षालन कर भोजनात्यकी क्रिया की।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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