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भरतेश वैभव
इस प्रकार सब लोगोंको बाहर कर कुसुमाजी एकांत में अपने पतिदेवको उत्तमोत्तम भक्ष्य, पायस, शाक, पाक आदि ला-लाकर परोसने लगी । स्वर्गके देवोंको भी जो भक्ष्य दुर्लभ हैं, ऐसे दिव्य पदार्थाको भरतेश्वरके सामने उसने उपस्थित किया।
तदनंतर अपने पतिदेवकी भक्तिसे आरती उतार कर पुष्पांजलि क्षेपण करती हुई हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगी कि स्वामिन् ! अब भोजण कीजिये।
उस समय भरतजीके शरीरमें तिलक, कुण्डल, यज्ञोपवीत, उत्तरीय व अन्तरीय वस्त्रके सिवाय और कोई अलंकार नहीं थे ।
भरतजीने हस्तप्रक्षालन आदि भोजनाद्य क्रियाओंको की । सिद्धोंकी स्तुति पूजाकर उन्होंने उन्हें सिद्धलोकमें विदा किया। पूर्वोक्त क्रमसे परमात्माका स्मरण करते हुए सिद्धान्तप्रतिपादित क्रमसे आहार लेने के लिये प्रारम्भ किया।
सबसे पहिले सम्राट्ने एक घुट जलका पानकर जलशुद्धि की, वाहर से मंगल घंटाध्वनि होने लगी। उसी समय सम्राट्ने भी अपने करकमलको उन दिव्य वस्तुओंसे युक्त थालीपर रखा । तदनन्तर परमात्माकी साक्षीपूर्वक उस शरीरको अन्नपान समर्पण करने लगे।
सम्राटने भेदविज्ञानके बलसे आत्माको उस शरीरके मध्यमें रख कर उसे पूछा कि हे चिन्मय परमात्मा ! मैं इस शरीरको यह पौद्गलिक अन्नको खिलाऊँ ? तम्हारी क्या आज्ञा है ? तुम तो कार्माण वर्गणारूपी आहारको भी भार समझते हो। ऐसी अवस्था हे स्वर्मोक्षपति ! तुमको इन कवलाहारों से क्या होगा ? इनसे पुद्गल को ही लाभ है। आहार लेनेकी इच्छा करनेवाले मन, इन्द्रिय, शरीर, वचन आदि सबके सब पुद्गल हैं, इस पौद्गलिक शरीरको उपयोगी यह आहार है । तुम्हारा उससे क्या सम्बन्ध है ?
हे आत्मन् । तुमने पूर्वजन्ममें जो पुण्य किया है उसके फलस्वरूप सुखको अब भोगकर छोड़ो। इस पूण्यको व्यय करने के लिये मैं यह भोजन कर रहा हूँ । आज इस अन्नके सुखको अनुभव करो। कल तुम्हें आत्माके अनन्तसुखका अनुभव होगा । इस प्रकार अनेक तरहसे आत्मा को समझाते हए भरतेश्वर भोजन कर रहे थे।
सम्राट्के पास ही कुसुमाजी इस कुशलताके साथ खड़ी थीं कि उनकी छाया भरतेश्वर या उनकी थालीपर न पड़े । बीच-बीच में वह