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________________ भरतेश वैभव इस प्रकार बोलती हुई कुसुमाजी हृदयमें इस बातसे प्रसप्त भी हो रही थी कि आज मुझपर प्रेमके कारण सम्राट्ने मेरे माता-पिता भाइयोंका भी नाम बड़े आदरसे लिया है। दुनियाके सभी राजाओंको एक वचनसे बुलानेवाला महाराजा आज मेरे जन्मदाताओंको बहुवचनसे स्मरण कर रहे हैं। सचमुच में मैं भाग्यशालिनी हूँ। राजाओंको ये प्रभु सेवकोंके समान बुलाते हैं, परंतु इन्होंने मेरे मातापिताको सासु व श्वसुर कहा । मत्रमुचमें यह भाग्य और किसे मिल सकता है ? विचार किया जाय तो यहाँ एकान होने से इस प्रकार सम्राट बोल गये हैं। नहीं तो राजसथ में अभी भी इमर सन्मानके साथ नहीं बोलते । वहां तो तौलकर वात करते हैं। भरतेशने इस समय विचार किया कि कुसुमाजी मेरी अत्यंत प्रेमपात्र रानी है, इसलिये उसके माथ एकांतमें तो कमसे कम समयोचित व्यवहार करना चाहिये । वे इसी विचारसे बोले। यदि किसी मूर्ख स्त्रीके साथ महाराजा भरतेश इस प्रकार कहे होते तो वह अभिमानके साथ भरतेशके सिरपर ही चढ़ती, परंतु कुसुमाजी बुद्धिमती थी, इसलिये ऐसा बोलनेसे उसका कोई बुरा परिणाम नहीं हो सकता है। इससे कहते हैं कि लोकमें विवेकी स्त्रीपुरुषोंकी जोड़ी ही सर्व प्रकार सुखप्रद है ! कुसुमाजी कहने लगी कि स्वामिन् ! घरकी सजावटकी बात क्या है, यह सब आपकी ही कृपा है। अब आप मंगल आसनपर विराजमान हो जाइये। भरतेश्वर नवरत्नमय आसनपर विराज । वहाँ नवरत्नमय उपकरण जलकलश वगैरह रखे हुए थे। अब कुसुमाजीने सब लोगोंको बाहर जानेके लिये कहा, केवल एक दासीको घंटा बजाने के लिये दरबाजेके बाहर खड़ी रहनेको कहा । फिर स्वतः जाकर दरवाजे को बंद कर आई। भरतेशने कहा कसुमाजी! दरवाजा क्यों बंद कर दिया ? कसुमाजी कहने लगी स्वामिन् ! इसका कारण पश्चात् कहूँगी। अभी आपको भोजनमें देरी होती है। परंतु भरतेश अपने मनमें यह समझ गये कि यह देवी पहिले तोतेके साथ बोली हुई बात येन-केन प्रकारेण बाहर पड़ गई है यह जानकर डर गई है। इसलिये अब मैं इसके साथ जो कुछ भी बोल वह किसीको भी मालूम न हो, सभी बातें गुप्त रहें यही इसके दरवाजा बंद करनेका अभिप्राय है।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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