SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भरतेया वैभव भोजनके लिये आये है इस हर्ष से ही उसका अर्घपेट तो भर गया था, फिर बाकी कुछ-कुछ अन्न-पानसे पेट भरकर उसने तृप्ति प्राप्त की, भोजनानन्तर बह विधाममन्दिरमें गई। वहीं झलेपर जरा लेट गई। इधर-उधरसे दासियोंने आकर उसकी सेवा करना प्रारम्भ किया। उसे भी अन्नके मदसे जरा नींद लगी परन्तु उसने जल्दी आँख खोल ली। मनकी आकुलतामें सुखनिद्रा भी नहीं आ सकती। ऊपर महलमें अकोले पतिको छोड़कर आई है वह फिर उसे निद्रा किस प्रकार आ सकती है ? उसे तो हृदयमें ऐसा अनुभव हो रहा है कि मैंनं कोई बड़ा भारी अपराध किया है। इसलिए जल्दी ही ऊपर जानेके विचारसे वह शय्यासे उठी । इतने में नाटकका अभिनय करनेवाली दो स्त्रियां उसके पास आई और कहने लगी कि देवी ! आज हम कोई नाटकका अभिनय करेंगी उसको देखनेके लिए आप महाराजसे प्रार्थना कीजिये। कुम्माजीने कहा अच्छी बात ! पतिदेवसे कहूँगी ! आपलोग तैयार रहना। इस तरह कहकर उन दोनोंको भेजकर उसने अपने अन्तःपुरके द्वार बन्द कर लिये और अपने शृङ्गारमंदिरमें जाकर उसने अपना शृङ्गार कर लिया। दर्पणमें देखती हुई अपने लिलनको सुधारती हुई वह अपने आप एक बार हँसी । अच्छी तरह अपनी सजावट कर अनेक सूगंधद्रव्योंको साथमें भी लेकर ऊपर महलके लिये रवाना हो गई। आमरणकटिसूत्रके 'झंझण' शब्दको करती हुई वह महलकी सीढ़ियोंपर चढ़ रही थी। ऊपर चढ़नेके बाद इस विचारसे कि पतिदेवकी निद्रामें कोई बाधा न हो, अत्यन्त निस्तब्धताके साथ जाने लगी। दूरसे झाँककर देखने लगी कि पतिदेव अभीतक जागे या नहीं। इस प्रकार जरा भी शब्द न करके वह पतिकी ओर जा रही थी । क्या इस प्रकारकी पतिभक्ति घर-घरमें हो सकती है ? इधर वह कुसुमाजी भरतेशकी ओर आ रही थी, उधर चक्रवर्ती थोड़ी सी निद्रा लेकर फिर जाग उठे एवं आत्मध्यानमें लीन हो गये थे। जिस प्रकार सूर्यको घेरनेवाला मेघ बहुत देरतक नहीं टिक सकता उसी प्रकार उस पुण्यपुरुषको घेरनेवाली निद्रा भी अधिक समयतक घेर नहीं सकी। कुछ ही देर बाद वे जागत होकर उसी शय्यापर आत्मयोगमें मग्न हो गये। बाहरसे देखनेवालोंको यह मालूम हो रहा था कि भरतेश निद्रामें मग्न हैं परन्तु वे अपनी आत्मामें मग्न थे। आँखोंको बंद
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy